Thursday 27 December 2012

तू भी गले मिले


इस तरह से बिखरे मुहब्बत के सिलसिले
ले जाए  हवा जैसे  परिंदों के घोंसले

हो किस तरह तय ये कि गुनहगार कौन था
कुछ मेरी उलझनें थी कुछ तेरे फैसले

खुशियाँ तलाशने को निकले थे घर से हम 

क़िस्मत  में जो लिखे थे वो सारे  ग़म मिले

मैय्यत से गले मिल के रोये  थे बहुत लोग 
हम चाहते ही रह गए तू भी गले मिले

Tuesday 25 December 2012

ज़रा ठहर तू यहीं



ऐ जवान उम्र ज़रा ठहर तू यहीं
अभी आता हूँ बुढापे से मिलकर

मेरे जाने से रौनक भी चली जायेगी 
मरने वालों  में मुझे न शामिल कर 


लोग करते रहे समंदर की तलाश
हो गया राख  शहर जल जल कर

नहीं होता है ख़त्म जुर्म सज़ा देने से 

आओ लड़ें गुनाह से सभी मिल कर

म्योर के वे दिन ... (9)

म्योर के वे दिन ... (9)

विश्वविद्यालय में एम एस सी भौतिक शास्त्र में 1964 में प्रवेश हुआ और पहली बार इलाहाबाद आया । एकदम अनजान शहर , उम्र 15 वर्ष 4 महीने, पास में एक टीन का बक्सा, कुछ कपडे और जेब में गिने चुने पैसे । आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर थी । पिता जी चार साल पहले रिटायर हो चुके थे ।पैसे का एकमात्र सहारा नेशनल छात्रवृति ।मूर्खता तो देखिये , सोचा था कि जो संस्था प्रवेश दे रही है वह रहने का स्थान भी देगी । जब पता पड़ा कि सारे छात्रावास भर चुके हैं ,मन एक दम निराश हो गया । किसी ने बताया कि अमर नाथ झा छात्रावास यहाँ का सबसे प्रसिद्ध छात्रावास है । हिम्मत जुटा कर सायंकाल उसके अधीक्षक महोदय डा मुश्रान से मिलने गया । पहले तो उन्होंने सीधे सीधे मना कर दिया , परन्तु जब मैंने अपनी मार्क शीट दिखाई , 82% अंक थे तब थोडा सोचने के बाद बोले कि कल आकर फ़ार्म भरदो और फीस जमा कर दो । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा ।रात प्रयाग स्टेशन पर बिताई । दूसरे दिन आ कर औपचारिकताएं पूरी कीं और एक डबल सीटेड कमरा आवंटित किया गया । कामन हाल के सामने सज्जन खड़े थे , उनसे कमरे का स्थान पूछा था कि मुझसे सीधे ही शुरू हो गए " अबे साले नए नए आए लगते हो , अपने बाप के बाप से पता पूछ रहे हो , विश नहीं करना जानते ?"। मेरी ऊपर से नीचें तक सारी चूलें हिल गयीं । इतनी देर में उनके कुछ और साथी एकत्रित हो गए । " चलो पचास फर्शी लगाओ "। मेरी कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने कहा " क्या करना है सर "। बोले " किस जंगल से आये हो , शकल से एक दम डी सी लगते हो "। फिर उन्होंने बताया कि फर्शी कैसे लगाई जाती है और मुझसे पूरी पचास फर्शियां लगवाई गयीं । भाग्यवश एक चपरासी ने हस्तक्षेप किया " भैय्या , जाइ दे , नवा नवा है , सब धीमे धीमे सीख जैहें "। मुझे छुटकारा मिला , कमरे में जाकर चैन की सांस ली ।
अभी मेरे दुखों का अंत नहीं हुआ था । रात में खिड़की पर किसी ने दस्तक दी , मैंने जैसे ही खिड़की खोली , एक ज़ोर की आवाज़ के साथ ढेर सारा पानी अन्दर आया । थोड़ी देर में समझ में आया , कि सुराही फोडी गयी थी । सारा बिस्तर भीग गया था , बिस्तर लपेट कर अलग करना पड़ा और किसी तरह राम राम कर के रात बीती । सितम्बर माह में फ्रेशर फंक्शन समाप्त होने तक गाहे बगाहे यह सिलसिला चलता रहा । सभी सीनियर्स को आदाब करना , उनका नाम तथा क्लास जानना आवश्यक होता था । आदाब करने की आदत तो ऐसी पड़ गयी थी , किसी भी अनजान चेहरे को देखते हो , हाथ खुद बा खुद उठ जाता था , चाहे वो कोई भी ही ।
थोड़े समय बाद सीनियर्स मित्रवत हो गए ।सभी तरह की मदद उनसे मिल जाती थी । बाद में इसी छात्रावास में 1968 में जनरल सेक्रेटरी , 1970 में सोशल सेक्रेटरी चुना गया । 1980 से 1984 तक अधीक्षक भी रहा और आज तक उसी संस्था से जुड़ा हुआ हूँ ।

म्योर के वे दिन .....(8)

म्योर के वे दिन .....(8)

सन 1964 में डा अमरनाथ झा छात्रावास में एम एस सी भौतिक शास्त्र के विद्यार्थी के रूप में प्रवेश मिला । मार्च 1965 में परीक्षाएं प्रारभ हुईं । तैय्यारी अच्छी थी । पहली परीक्षा की रात को अच्छी तरह विषय को दोहरा कर रात्रि में 9 बजे ही बिस्तर पर लेट गया । सोचा यह था कि ठीक से लम्बी नींद लूँगा तो सुबह मस्तिष्क तरो ताज़ा रहेगा । परन्तु ऊपर वाले की मर्जी कुछ और थी । गलती यह हो गयी कि रात को खाने के स्थान पर एक दो संतरे ही खाए थे और पिछले एक दो दिन से रात को ऐसे ही चल रहा था । अब नींद आये भी तो कैसे । थोड़ी देर विषय को लेटे लेटे ही दोहराता रहा । देखते देखते रात्रि के 12 बज गए । अब चिंता सताने लगी । उठ कर कोरिडोर में आठ दस लगभग दौड़ने के बराबर चक्कर लगाए , यह सोच कर कि थकान से नीद आ जायेगी । परन्तु नींद एक दम गायब हो चुकी थी । 5 बजने वाले थे , आसमान में थोड़ी रोशनी होने लगी थी । 7 बजे से परीक्षा थी । अब उठ कर तैयार होने के अलावा कोई चारा नहीं था । सारी रात जागते जागते निकली थी । सब कुछ धुआं धुआं सा लग रहा था । परीक्षा के लिए जाते समय विषय के बारे में नहीं सोच पा रहा था , चिंता यह लगी थी की अब फेल हो जाऊँगा तो पिता जी इलाहाबाद पढने नहीं भेजेंगे , कही अलीगढ या आगरा में पढ़ाएंगे । बुजुर्गों का आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा हुई कि पर्चा मिलते ही स्मरण शक्ति साथ दे गयी , प्रश्न हल होते गए और परचा ख़ासा ठीक ठाक हो गया । छात्रावास लौटा तो अपनी ग़लती जान चुका था । सीधे मेस में जा कर भर पेट खान खाया और उसके बाद पूरे तीन घंटे सोया । बाद के पर्चों की रात को खाना न खाने की ग़लती को नहीं दोहराया । पहले पर्चे में 100 में से 85 तथा योग में 80 प्रतिशत अंक आये । थ्योरी के यह अंक कई वर्षों तक रिकार्ड की तरह रहे ।

मेरी सभी विद्यार्थियों को सलाह है कि इम्तिहान की रात को ज्यादा भोजन तो न करें , परन्तु खाली पेट न रहें वरना मेरी तरह मुसीबत में फस सकते हैं ।

Sunday 23 December 2012

शर्मसार हूँ मैं

ज़ख्म जिसने भी दिए हों तुझको
देख कर उनको शर्मसार हूँ मैं

सर पे इलज़ाम नहीं है फिर भी
ऐसा लगता है गुनहगार हूँ मैं

तेरे बदन पे हुए हैं जितने सितम
हम वतन उनका राज़दार हूँ मैं

मैं हूँ पत्थर मेरी सूरत को बदल
संगतराशी का तलबगार हूँ मैं



ये बात और है कोई कहे न कहे
इस तबाही का  ज़िम्मेदार हूँ मैं

Thursday 20 December 2012

कहानी चली गयी


जब प्यार किया था तो नादान बहुत थे
अब जान गए हैं तो जवानी चली गयी

जब  आये थे बादल तो  मयखाना बंद था
पियाले भरे तो शाम सुहानी चली गयी

सपनों की झूठीं बातें सुनानें लगे हैं लोग
वो तेरे मेरे सच की कहानी चली गयी

हार गया मिट्टी  से एक शाह का मज़ार 
मील के पत्थर की निशानी चली गयी  

म्योर के वे दिन .... (7)

म्योर के वे दिन .... (7)

रहमत के वालिद पी सी एस अफसर थे और लखनऊ में पोस्टेड थे । दिवाली की छुट्टियां हुईं । छात्रावास खाली होने लगा ।मेरे साथ 3-4 मित्र मिलकर रहमत को प्रयाग स्टेशन छोड़ने गए । जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर रूकी , सभी ने बिना किसी पूर्व तोजना के तय किया कि चलो लखनऊ चलते हैं । आज कहीं जाना हो तो सौ तैय्यारियाँ होतीं है । मगर जवानी का ज़माना भी क्या होता है । न कपड़े , न बैग, न पैसे , टिकट लेने का तो समय ही कहाँ था , पर चल पड़े तो चल पड़े । । करीब चार घंटे के बाद जब लखनऊ आने लगा तो चिंता लगी कि टिकट तो लिया ही नहीं था , स्टेशन पर उतर कर क्या करेंगे । एक रेलवे क्रासिंग के पास गाड़ी धीमी हुई तो रहमत ने बताया कि उसका घर इस स्थान से पास पड़ेगा , सब के सब एक एक कर के चलती गाढ़ी से सावधानी से उतरने लगे । हड़बड़ी में मेरी बुद्धिठीक से काम नहीं की , भौतिकी के सारे नियम भूल कर गाढ़ी की चाल के विपरीत दिशा में कूदा , पटरी के बगल में पड़े पत्थरों पर चारो खाने चित्त गिरा , पहियों से मुश्किल से एक फीट की दूरी पर । मुझे इस तरह गिरते देख कर क्रासिंग पर खड़े लोगों के मुंह से चीख निकल गयी । मैं उठा तो एक खरोंच भी नहीं आयी थी । ऊपर वाला बचाना चाहे तो आदमी की हर गलती माफ़ है ।


    रहमत के घर पहुंचे । उसके वालिद एक दम शाही तबियत के इंसान थे । पूरा ड्राइंग रूम खाली कर के हम लोगों के हवाले कर दिया गया , और हम लोगों की अच्छी खातिर हुई । एक बहुत बड़े तवे पर बीस अण्डों का आमलेट तो पहली बार बनते देखा । उस दौरान एक बहुत उल्लेखनीय बात हुई , बड़ी दीवाली के दिन रहमत के पिता जी ने हमारी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ दिये भी अपने घर पर जलाए । बाद में वे इलाहाबाद में कमिश्नर भी नियुक्त हुए । जब तक वे जिंदा रहे , मैं जब भी उनसे मिलता था तो उनके पैर छूता था ....अब उतने बड़े दिल वाले लोग बड़ी मुश्किल से मिलते है ।

Wednesday 19 December 2012

मेरा चर्चा बहुत हुआ


कोई नहीं  हुआ जब तड़प रही थी मैं
मर गयी मैं त़ो  मेरा चर्चा बहुत हुआ

तब ये हुआ फिर ये, होती रही बहस
नंगे  मेरे बदन का तमाशा बहुत हुआ

मुज़रिम को सजा हो, ये बातें बहुत हुईं
ज़ुर्म होता रहा यूँ ही , ऐसा बहुत हुआ

मुफ्त में मिल गया  सियासत को  मुद्दा 
शान ऐ  हुक़ूमत  में  इज़ाफा बहुत हुआ

Monday 17 December 2012

म्योर के वे दिन ...(6)



म्योर के वे दिन ...(6)

सन 1972 , 8 फरवरी । छात्रावास में विद्यार्थी की तरह अंतिम वर्ष समझिये ।मेरी उम्र लगभग 23 वर्ष रही होगी ।पेलेस थेटर सुबह के लिए बुक किया गया । संगीत का एक कार्यक्रम "एम सी प्रेजेंट्स गुंजन " मेरे ही द्वारा आयोजित किया गया । वाद्य यन्त्र बजाने वाले सभी आकाश वाणी के कलाकार थे । पुरुष गायकों में श्री ज्ञानेश्वर तिवारी थे , ऐ एन झा से जुड़े हुए , पार्श्व गायक स्व. मुकेश जी के गाने बहुत अच्छे गाते थे । लड़कियों में तीन गुलवाडी बहनें  कु निर्मला गुलवाडी, कु शोभना गुलवाडी, कु शैला गुलवाडी  तथा कु श्यामली चटर्जी । सभी  बहुत सुरीली थीं । मैंने स्वयं उस कार्यक्रम का निर्देशन किया था तथा साथ में मैन्डोलिन भी बजाया था । आकाश वाणी के जाने माने कलाकार श्री गौरी शंकर जी क्लेरिनेट पर थे ।

हाल खचाखच भरा हुआ था । ग़लती यह हो गयी कि एक सज्जन ने हमें बताया कि वे पार्श्व गायिका हेम लता के कार्यक्रम का संचालन बखूबी कर चुके हैं , और हमारा दुर्भाग्य था कि हमने उन्हें बिना सुने ही संचालन का कार्य भार सौंप दिया । कार्य क्रम के प्रारम्भ में ही संचालक महोदय ने हमारे मुक़द्दर पर पानी फेरा । घोषणा की कि " कार्यक्रम प्रारभ होने वाला है , आप लोग अपने स्थानों पर बेठ जाइये "। उनका 'बैठ' को 'बेठ ' बोलना था कि हाल में 'हा हा ही ही' का शोर हो गया । मुझे पसीना आ गया । पर्दा खोला गया और मैंने डरते डरते " घर आया मेरा परदेसी " का प्रारंभिक मेंडोलिन का टुकड़ा बजाया , मेरा सौभाग्य था उसके बजते ही हाल में ज़बरदस्त ताली पिटी और हम लोगों का मनोबल बढ़ गया । उसके बाद ऐंकर महोदय को एक शब्द नहीं बोलने दिया गया । कार्यक्रम बहुत सफल रहा । तकनीक के लिहाज़ से समय से दस वर्ष आगे का कार्य क्रम था , कलाकारों पर चलते समय लगातार स्पॉट लाइट बनी रहती थी ।उल्लेखनीय गानों में " घर आया मेरा परदेसी ...", "मिलो न तुम तो हम घबराएं ....", "रैना बीती जाय .." , "पुकारो , मुझे तुम पुकारो ....", इत्यादि थे । सफलता में छात्रावास के मित्रों का बहुत सहयोग था ।

आज कल ज्ञानेश्वर तिवारी इंडियन आयल कोर्पोरेशन में डिवीजनल जनरल मेनेजर के पद पर आसीन हैं । गुलवाडी बहनें दूरदर्शन पर गातीं हैं , सबसे छोटी बहन ने अच्छे संगीत निर्देशकों के साथ भी कुछ रिकॉर्डिंग्स की हैं । ध्यान रहे कि किसी को भी संचालन का भार देने से पहले ठीक से जांच परख लीजिये , पता नहीं कौन कब आपकी नैया डुबो दे ।


म्योर के वे दिन ......( 4 )



सन 1971 की गर्मियां की बात है जब मैं रिसर्च कर रहा था । मैस तो अक्सर बंद ही रहता था । हास्टल के कमरा नम्बर 74 में बैठा हुआ था , पेट में चूहे दौड़ रहे थे । जेब में बहुत पैसे भी नहीं थे और ऊपर से चिलचिलाती हुई धूप । बाहर जाकर कुछ खाने के लिए निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था । तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया , खोल कर देखा तो हमारे बड़े भाई साहिब के दूर दराज़ के साले श्र

ी रमेश जी खड़े थे । राय बरेली में पी डब्ल्यू डी में जूनियर इंजीनियर थे । बातचीत के दौरान बताया कि हाई कोर्ट में किसी काम के सिलसिले में आये हैं । थोड़ी देर में बोले कि " मैं ज़रा खाना खाऊंगा , साथ में लाया हूँ "। कह कर उन्होंने बैग से टिफिन निकाला । टिफिन के खुलते ही शुद्ध घी के परांठों की खुशबू नाक से सीधे कलेजे तक उतर गयी ।पश्चिम के रहने वाले थे , परांठों की संख्या 12 से कम न रही होगी । औपचारिकतावश मुझसे पूछा " आप भी एक आधा लीजिये "। मेरे पास ना नुकुर करने लायक लज्जा नहीं बची थी , एक के बाद एक चार परांठे खा गया । जब मैंने कहा कि " आप थोडा आराम कर लीजिये ", तो तुरंत बोले " अरे मुझे तो ऐसे ही देर हो गयी है , वकील से मिलना है , चलूँगा "। कह कर नमस्कार किया और बैग उठाकर चलते बने । उनके जाने के बाद सोचने लगा कि सच ही कहा है कि 'दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम' । अवश्य ही उन चार पराठों पर " महेश चन्द्र शर्मा " लिखा होगा , तभी तो वे सज्जन तपती दोपहरी में इतनी दूर से आये और उन शुद्ध घी के पराठों को खिलाने के बाद ज़रा देर भी बिना रुके चले गए ।

जब ईश्वर को किसी का पेट भरना होता तो ऐसे ही देता है और जब भूखा रखना होता है तो बादशाहों की थाली में से उठा लेता है ।

Sunday 16 December 2012

म्योर के वे दिन ......(5)


म्योर के वे दिन ......(5)

लाइब्रेरी वाला भूत :

जिस समय की बात मैं कर रहा हूँ उस समय इलाहाबाद में तो दिन भी बहुत शांत हुआ करते थे , फिर रातों का तो क्या कहना । कला संकाय में तो रात को ज़बरदस्त खामोशी छा जाती थी । अन्दर घूमने का मन करता था पर चौकीदार जाने नहीं देते थे, बहुत रोक टोक करते थे । एक रात इरादा बना कि अन्दर घूमना ज़रूर है । करीब छह लोग थे हम | लक्कू बौस , रहमत , मैं तथा तीन और । प्लान बन गया ,, सफ़ेद चादरें इकठ्ठी की गयीं । एक घड़े का मुंह तोड़ कर चौड़ा किया गया , दो आँखों के जैसे छेद किये गए , उन पर लाल पन्नी चिपकाई गयी । हम लोगों ने सफ़ेद चादरों से बदन को पूरी तरह ढक लिया , सबसे आगे लक्कू बौस ने घड़ा मुह पर पहन लिया और अन्दर से टार्च जला ली । रात के लगभग 1 बजे कला संकाय में प्रवेश किया । अजीब तिलस्मी दृश्य था , सबसे आगे लाल आँखों वाले लक्कू बौस और पीछे पांच सफ़ेद साए ,बिना आवाज़ किये पीछे चले जा रहें थे । एक चौकीदार ने पहेले तो ज़ोर से कहा " कौन है ?", पर माहौल देख कर एक दम सन्नाटा खींच गया , और छिटक कर 20 गज की दूरी बना ली , आगे दूसरा मिला उसका भी लगभग वही हाल हुआ । एक कुछ ज्यादा घबड़ा गया , ज़ोर से चिल्लाया " अरे कड़ेदीन ,, मुखिया ...भरोसे ...जल्दी आवा हो , ऊ लायबरेली (Library) वाला भूत आवा है , पूरा खानदान लय के "। अब कई इकट्ठे हो गए , परन्तु किसी की भी हिम्मत हमारे पास आने की नहीं हो रही थी । ठीक से दूरी बना कर हमारा पीछा करने लगे । लक्कू बौस अचानक 90 डिग्री के कोण पर मुड़ जाते , और वे लोग सहम जाते । तभी दुर्भाग्य से रहमत का पैर एक पत्थर से टकरा गया , उसे लगा कि मैंने टंगड़ी मारी है , तुरंत बोल पड़ा " अबे एम सी , बदमाशी मत करो "। चौकीदारों के लिए ये बहुत बड़ा इशारा था , एक चिल्ला कर बोला " हम पहले ही समझ गए रहिन , ई सब सार लरिका लोग हैं , मारा सारन का .."। सुनते ही हम सभी लोगों में जंगली हिरन वाली ऊर्जा आ गयी । मैं ज़िंदगी में इससे तेज कभी नहीं दौड़ा , पलक झपकते ही मोती लाल नेहरु रोड  वाली चहार दीवारी पार कर गया । रहमत हडबडी में उस पार ऐसा टपका जैसे पेड़ से पका आम , अलबत्ता आम की तरह फटा नहीं । हाँ हफ्ता भर लंगड़ा कर ज़रूर चला ।

इसमें लक्कू और रहमत काल्पनिक नाम हैं , पर पात्र असली हैं । लक्कू बाद में आई पी एस तथा रहमत प्रॉपर आई ए एस बने । अभी भी रहमत मियाँ का फोन आता है " अबे एम सी यार उस दिन टांग मार कर बहुत बुरा फसा दिया था तुमने "। मैं कह कह कर थक चुका कि यार उस दिन लात मैंने नहीं मुक़द्दर ने मारी थी ।

ग़मों से बोझिल है



न डरा  मुझको गर्दिशे दौरां
मेरी बरबादी मेरी मंज़िल है

जो नहीं है उसी को ढूँढता है
यही तो आदमी की मुश्किल है

मैं मर चुका हूँ ज़माने  पहले 
ढूँढता मुझको अब भी क़ातिल  है

तेरा क़रम है कि हंस लेता हूँ
मेरा बदन ग़मों से बोझिल है

जिनको जाना है तेरी  महफ़िल से
मेरा भी नाम उनमें शामिल है


हैं  तेरे साथ चाहने वाले बहुत
एक मेरे पास अकेला दिल है  





Saturday 15 December 2012

म्योर के वे दिन ........(3)


1970 के दशक की बात है । उन दिनों प्रयाग संगीत समिति में अक्सर ही शाश्त्रीय संगीत के बड़े नामी कलाकार आते रहते थे । एक दिन कुछ मित्रों के साथ इच्छा जगी कि चल के सुना जाय । छात्रावासीय जीवन में जेब की पैसे से दुश्मनी बनी रहती है । इच्छा प्रबल थी , बिना कुछ सोचे समझे चल दिए । समिति पहुच कर समस्या बनी कि अन्दर कैसे जाया जाय । अल्फ्रेड पार्क के अन्दर की ओर से संगीत समिति के

पीछे की तरफ गए । सौभाग्य से चहार दीवारी लगभग दस फीट ऊंची थी । "गोविंदा आला " युक्ति से अन्दर कूद लगाईं । जैसे ही अंतिम साथी कूदा कि चौकीदार की नज़र हम पर पड़ गयी । आनन फानन में "पकड़ो पकड़ो " का नारा लगा और हम लोग धर लिए गए । एक चैनल गेट के अन्दर बंद कर दिया गया । एक कटरा के सज्जन दिखाई दिए तो मैंने गुहार लगाई " भाई साहब , आप तो हमें जानते है , हम लोग चोर उचक्के नहीं हैं "। उन्होंने बड़ी बेरुखी से उत्तर दिया " हाँ हाँ जानते हैं , ऐ एन झा में रहते हो , रिसर्च करते हो ,अब जो किया है सो भुगतो "। प्रबंधकों को सूचना दी गयी । काटो तो खून नहीं । अचानक थोड़ी देर में एक सज्जन आये , बड़ा सुन्दर व्यक्तित्व था , ताला खुलवा कर बोले " आप लोग आइये मेरे साथ "। लगा कि अब पुलिस के सुपुर्द किये जायेंगे , इज्ज़त की वाट लगने वाली है । परन्तु भाग्य पल्टा खा चुका था , उन्होंने हमें हाल में अन्दर ले जाकर सबसे आगे से तीसरी पंक्ति में बिठा दिया और कहा कि "बैठिये और सुनिए "। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । मैं इस घटना को कभी भूल नहीं पाया । संगीत से जुड़े लोग संवेदन शील तो होते ही हैं , मुझे लगा कि उस सहृदय मनुष्य ने सोचा होगा कि शाश्त्रीय संगीत, जिसको सच्चे मायने में बहुत ही कम लोग समझते हैं , उसके लिए यदि कोई दस फीट की ऊंची दीवार से छलांग लगा सकता है तो उसका सुनने का हक़ तो बनता है ।
"माना कि तेरे दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
मेरा शौक़ देख मेरा इंतज़ार देख "

म्योर के वे दिन ........(2)


विद्यार्थी जीवन में , और खासतौर से छात्रावास में , कौन एक दूसरे को "आप आप " करके बोलता है । कुछ अच्छे बच्चों को छोड़कर सभी " और बेटा ....." कर के ही बोलते हैं । गालियों पर अनवरत शोध कार्य चलता ही रहता है । मैंने उस समय कुछ पंक्तियाँ लिखीं थी जिसमे विशुद्ध गालियाँ थीं और उसकी धुन "तोडी " थाट के स्वरों को ले कर की थी । जब जी में आये मस्ती में गाता रहता था और साथी भी आन

ंद पूर्वक सुना करते थे । नवागंतुकों का उत्सव होने वाला था और उसमें कुछ गाने वाले या वाद्य यन्त्र बजाने वालों के चयन की प्रक्रिया चल रही थी । अधीक्षक भी बैठे थे , उन्होंने मुझसे कहा " अरे शर्मा इन बच्चों को कुछ बांसुरी सुनाओ , इन्हें प्रेरणा मिलेगी "। कमरे से बांसुरी मंगाई गयी , मुझे और कुछ न सूझा ,वही (गालियों वाली ) धुन बांसुरी पर सुनाने लगा । अब बांसुरी से शब्द तो निकलते नहीं है , कि मैं पकड़ा जाता । अधीक्षक महोदय संगीत समझते भी थे , उधर वे " वाह वाह" किये जा रहे थे , और लड़के तालियों से ताल तो दे रहे थे परन्तु अपनी हंसी नहीं रोक पा रहे थे । अधीक्षक पशोपेश में थे कि इस धुन में हंसने लायक क्या है । खैर , अंत में खूब ताली पिटी । सौभाग्य से अभी भी विश्वविद्यालय से सेवा निवृत गुरुदेव जीवित है , ईश्वर उन्हें लम्बी आयु दे । वैसे आज तक न तो उन्हें किसी ने बताया और न वे कभी नहीं जान सके कि मैं बांसुरी पर क्या बजा रहा था ।...

म्योर के वे दिन ......(1)


रात के लगभग 12 बजे के आसपास प्रयाग स्टेशन चाय पीने जाते थे , हम कोई चार पांच मित्र । मेरी हाथ में सीधी बांसुरी रहती थी । लौटते समय आधे सोये आधे जगे सरोजिनी नायडू छात्रावास के सामने कभी कभी रुक कर ऍफ़ सी आई की चहार दीवारी पर बैठ जाते थे । उस समय का प्रचलित गाना " मेघा छाये आधी रात , बैरन बन गयी निदिया ", मैं अक्सर बांसुरी पर बजाता था । लड़कियों को अंदाज़ नहीं होता था ,

मगर हम लोग साफ़ साफ़ देख पाते थे , छत पर धीमे धीमे झुक कर आते हुए सायों को । दो चार गाने बजाने के बाद उनको अलविदा कह कर हम लोग हास्टल लौट आते थे । कोई भी भद्दी अभिव्यक्ति नहीं होती थी हम लोगों की और से । वे सभी मित्र बाद में आई ए अस बने और अब लगभग सभी सेवा निवृत हो चुके हैं । वे दिन अब कभी नहीं लौटेंगे ....पर यादें तो बिना बुलाये आतीं हैं , उन पर किसी का ज़ोर नहीं चलता ।

मैं आगे भी इन यादों को सिलसिला ज़ारी रखूँगा । एक बात का विश्वास आप लोगों को दिलाना चाहूँगा , कि जो भी लिखूंगा उसमें न तो कुछ असत्य होगा ...न अतिशयोक्ति ।..

Thursday 13 December 2012

निभाना मुश्किल होगा


नंगे पैरों से न चलिए इन सूखे पत्तों पे
लगी जो आग बुझाना मुश्किल होगा

अभी तो दिन है कांटे भी देख सकते हो
ढली जो शाम तो आना मुश्किल होगा


किसी की ज़ुल्फ़  के साए में बसेरा कर लो
आज  घर लौट के जाना मुश्किल होगा

निभा ही लेते है लोग ज़माने के रिश्ते
ये मोहब्बत है निभाना मुश्किल होगा

Tuesday 11 December 2012

शोर होता है


न रो ऐ आँख ,सो गया है  दिल
अश्क़ गिरते  हैं शोर होता है

वो तेरा गाँव में भीगा आँचल
मेरा दामन यहाँ  भिगोता है

जो भी आया ज़रूर जाएगा
ज़माना रोये तो क्या होता है

उम्र भर उलझनें जगाती हैं उसे
थक के फिर लम्बी नींद सोता है 

Thursday 6 December 2012

पहचान बहुत थी

एक शख्स चाहता था माहौल बदलना
दुनियाँ जो साथ में थी नादान बहुत थी

पर्वत पे दूरियों का अंदाज़ ग़लत था
और भीड़ रास्तों से अनजान बहुत थी

वो कह रहा था सच ये बात भी सच है
उसकी दलील बेबसों बेजान बहुत थी

अब कुछ तो सब्र कीजिये इतना न रोइए
मेरी भी मरने वाले से पहचान बहुत थी

Wednesday 5 December 2012

मैंने ज़िंदगी समझा

उम्र भर बेवफ़ाई करता रहा
जिसको मैंने ज़िंदगी समझा

घर मेरा जल रहा था उसने
तमाशा ऐ आतिशी समझा

रोने को मुंह ढका था मैंने
वो इज़हारे खुशी समझा

साग़र पे बरसना फ़िज़ूल है

ये बादल क्यूँ नहीं समझा

उसे मानते थे अहले समझ
सच में जो कुछ नहीं समझा



Tuesday 4 December 2012

तूफ़ान उठा रक्खा है



दहकते चेहरे पे लिपटा भीगा आँचल जैसे
किसी बादल ने बिजली को छिपा रक्खा है 



तेरे इनकार के डर से जिसे  मैं दे न सका
ख़त वो इज़हार का कब  से  लिखा रक्खा है

 न टूट जाए कहीं तेरे हसीं रिश्तों का घर
मैंने एक  आग को सीने में दबा रक्खा है
  
तुझे चाहूँ तो ज़माने का क्या बिगड़ता है
दुनिया  ने मुफ्त में तूफ़ान उठा रक्खा है

Monday 3 December 2012

मेरे ज़ख्म कहाँ है


मिला है दर्द जहां से वो मेरे अपने थे
गैरों को क्या पता था  मेरे ज़ख्म कहाँ है


कल रात इस बस्ती में जलाए गए थे लोग
जो खाली दिख रहे हैं वो सब उनके मकां हैं 



नुमाइश नहीं लगी है सितारों की बदन पे
मेरे सीने पे चमकते तेरे तीरों के निशां हैं  



महफ़िल में मेरा हँसना एक मेरी बेबसी है
रोने के कितने हादिसे इस  दिल में निहां हैं  



Sunday 2 December 2012

और तेरा तीर है


हर बशर की बस यही तक़दीर है
अपने  घर में कल टंगी तस्वीर है



वक़्त कहता है चलो चलते रहो
और पैरों में बंधी ज़ंजीर है



मुख़्तसर है मेरे ग़म की दास्ताँ
ये जिगर मेरा और तेरा तीर है
 
दफ़्न कल मुमताज़ हुई थी जहां
ताज महल  हो गया तामीर है

क्यूँ जगाते हो उसे सोने भी दो
ज़िंदगी से थक गया राहगीर है 




Saturday 1 December 2012

कौन लिखता है

बंद आखों में नज़र आते हैं कितने चेहरे
आँख खुलती है कोई भी नहीं दिखता है

ख्वाब 
दुनिया है या ख्वाब में है  ये दुनिया
सब हक़ीक़त है तो ख्वाब में क्या दिखता है

हादिसे होते हैं यहाँ पहले से लिखी होनी से
होनी ये किस तरह होनी है कौन लिखता है

कोई तो रिश्ता है इस आंसू का तेरे चेहरे से

निकल के आँख से रुखसारों पे क्यूँ रुकता है

Friday 30 November 2012

कोई ख्वाब न देख

मुझसे  मिलना है  मेरी रूह से मिल
मेरे बदन में लिपटा हुआ लिबास न देख

ठीक से जान ले दरिया ये कितना गहरा है
आती जाती हुई लहरों का हिसाब न देख

रक्स करती हुई परियों की  कहानी तो नहीं
 ज़िंदगी  एक हकीकत है  कोई ख्वाब न देख

शर्म से दोहरा हुआ जाता है तेरा महबूब
भरी महफ़िल में  यूँ उसे  बेहिसाब न देख  

Thursday 29 November 2012

वो आंयें न आयें

बेहतर है दरिया को अपना बना लो
किनारों का क्या जाने कब टूट जाएँ

खुद अपने ही बाजू से दुनिया संभालो
सहारों का क्या जाने कब छूट जायें

तनहा भी जीने की आदत तो डालो
अपनों का क्या जाने कब रूठ जाएँ

मेरे दोस्तों मेरी मैय्यत उठालो
क्या उनका भरोसा वो आंयें न आयें

छलकते हुए पैमाने

हर होठ चाहता है छलकते हुए पैमाने
क्या मोल हैं जहां में एक खाली सुराही का

रोने पे बंदिशें हैं सब कुछ कहो ज़ुबां से
अब ये सिला मिला है अश्क़ों की गवाही का

जो आज हो गया है ऐसा ही तो होना था
एहसास था पहले से मुझे अपनी तबाही का

मेरी नज़र बुरी है सब लोग ये कहते हैं
तोहफा दिया जहां ने ये पाक निगाही का

सूरत बदल नहीं सकता

अपने दिल में उतार सकता है
शीशा सूरत बदल नहीं सकता

वक़्त को हमने आजमाया है
मेरी किस्मत बदल नहीं सकता

न भर शराब अब मेरे पैमाने में
इतनी पी है संभल नहीं सकता

नहीं है खूँ जो निकल जाएगा
ग़म है पत्थर निकल नहीं सकता

Wednesday 28 November 2012

पूरे असर के बाद

क्या बताएं तुम्हे इस पल कि कैसा है समंदर
सूरत बदलती जाती है हर एक लहर के बाद

चढी है धूप गुलों से लग लो गले जी भर के
सिर्फ साये ही मिलेंगे तुम्हे दोपहर के बाद


दो चार लमहे गुज़रे  हैं  पी कर न कर गुरूर
लाती  है रंग अपना मय पूरे असर के बाद

कुछ इस क़दर मसरूफ हुआ है ये आदमी
मिलता है ढले शाम ही अब तो सहर के बाद

आइना ही बिखर गया

तेरी एक तस्वीर दिखा कर मुझको
खुद आइना ही बिखर गया

वादा करता रहा जो  रात भर मुझसे
सुबह ज़िंदगी से मुकर गया

मैं भी पागल  हूँ  पूछता हूँ तूफां से
मेरा आशियाँ था किधर गया

बरसों तुझे नज़रों में क़ैद रख कर मैं
क्यूँ तेरी नज़र से उतर गया

Tuesday 27 November 2012

संवरना न आया


खड़े रह गए यूँ ही दरिया किनारे
नादाँ थे हम पार करना न आया

झुकी उन निगाहों के भीगे इशारे
एक हम थे हमें प्यार करना न आया

संवर कर वो आये तसव्वुर में मेरे
क्यूँ मेरी नज़र को संवरना न आया

खुली चांदनी थी और इठलाती लहरें

हमें झील में ही उतरना न आया

चमन में खिले थे गुलाबों के गुंचे 
मेरे रूप को तब निखरना न आया

बहकती हवाओं ने शाखें हिलाईं
हमें वादियों में बिखरना न आया

Monday 26 November 2012

वो हर बार सही था

मैंने किया था प्यार मेरा प्यार सही था
तुमने किया इनकार वो इनकार सही था

क़िस्मत ने ही दिए हैं मुक़दमों के फैसले
वो ठीक कह रहा था वो हर बार सही था

तुम जानते थे कैसे होती है तिजारत
मैंने जो जान दी थी व्यापार नहीं था

जिसका इलाज होता रहा कई रोज़ तक
वो भूख से मरा था बीमार नहीं था

Sunday 25 November 2012

मेरा शुमार होता है

कहाँ कैसे और किससे प्यार होता है
जब भी होता है बे इख्तियार होता है

उंचा सर रख के भी जी सकते हो
बिकने को यूँ तो सारा बज़ार होता है

जो तैरना आये तो कुछ नहीं हासिल
हौसला होता है तो दरिया पार होता है

बरसों हुए मैं भूल चुका हूँ फिर भी
तेरे दीवानों में मेरा शुमार होता है

Saturday 24 November 2012

मुझे बख्श दे ऐ ज़माने

मैं तंग आ गया हूँ अब तेरी दुश्मनी से
मुझे बख्श दे ऐ ज़माने

जितने थे सीधे आकर जिगर पर लगे
कितने सच्चे थे तेरे निशाने

मैं कुछ चाहता हूँ वो कुछ सोचता है
रब की मर्ज़ी तो कोई न जाने

कोशिशें कर रहा था तुझे भूल जाऊं
तू याद आ गया इस बहाने
 

Thursday 22 November 2012

कुछ तुमने भी बदनाम किया

थे पहले से भी ज़ख्म कई फिर तेरी नज़र ने काम किया
कुछ तो हम भी दीवाने  थे कुछ तुमने भी बदनाम किया

वो वस्ल के मंज़र देखे थे बस घर की ही दीवारों ने
मैंने तो लब सी रक्खे थे तुमने ही ये चर्चा आम किया

जो पी कर रोज़ बहकते थे वो रौनके महफ़िल बनते रहे
मैंने तो पिए थे अश्क तेरे क्यूँ मुझको शराबी नाम दिया

छलक जाया करो


तेरा चेहरा  है जामे मय की तरह
कभी हम पर भी छलक जाया करो

 बहुत  अँधेरा है मेरे आँगन में
हो चांदनी  तो चले  आया करो

हमें मंज़ूर है रो लेना  तेरे शानों पे
दूर रह कर न यूँ  रुलाया करो

अब निकलना है तेरी महफ़िल से
वक़्ते रुख़सत   न आज़माया करो

तेरा चेहरा  है जामे मय की तरह
कभी हम पर भी छलक जाया करो

 बहुत  अँधेरा है मेरे आँगन में
हो चांदनी  तो चले  आया करो

हमें मंज़ूर है रो लेना  तेरे शानों पे
दूर रह कर न यूँ  रुलाया करो

अब निकलना है तेरी महफ़िल से
वक़्ते रुख़सत   न आज़माया करो

उदासियों से जो घिर जाए दिल
हम दीवानों की गली आया करो 

Monday 19 November 2012

डर गया हूँ मैं

मेरे दरवाजे पे लोगों का हुजूम
है इतनी भीड़  डर गया हूँ मैं

दुश्मन भी कर रहे हैं  तारीफ़
ऐसा लगता है  मर गयां हूँ मैं

बदन जितनी ज़मीन मेरी  है 
सो सकूँगा  जिधर गया हूँ मैं 

न मना ग़म मैं एक लमहा था
झपकी पलकें गुज़र गया हूँ मैं  

उनमें एक रूह थी शामिल

मैं बड़े शौक़ से इस दर से चला जाऊंगा
था तेरे पास मेरा दिल मुझे वापस दे दे

जो बिताए थे रो रो के तसव्वुर में तेरे
जवान उम्र के वो दिन मुझे वापस दे दे


आज डूबा हूँ तो समझा हूँ कि साग़र क्या है
मेरी क़श्ती मेरा साहिल मुझे वापस दे दे

तेरी चूनर में बंधे रहते थे जितने सामान

उनमें एक रूह थी शामिल मुझे वापस दे दे

Thursday 15 November 2012

जिंदा रहूँगा मैं

कोयला नहीं हूँ कि राख हो जाऊँगा
पैदाइशी मशाल हूँ जलता रहूँगा मैं

मैंने तेरे दिल में जगह बना ली है
बाद मरने के भी जिंदा रहूँगा मैं

Monday 12 November 2012

कोई ईश्वर तो मिले

थाल दीपों का सज गया लेकिन 
किसे पूजें कोई ईश्वर तो मिले

डूब जायेंगे बड़े शौक़ से हम भी
रंग और रूप का सागर तो मिले

किसने माँगा है रेशम का लिबास
लाज ढकने को  चादर तो मिले

हम तलाश आये हैं कितने पर्वत
कहीं ईमान का पत्थर तो मिले 

मेरा आशियाँ जलाने को


तू परेशान न हो मेरी इन खुशियों से रक़ीब
दोस्त कुछ कम तो नहीं आशियाँ जलाने को

उन्हें आता है बना रखना शराफत का भरम
खाक़ जब हो गया घर आये हैं बुझाने को

कोई गर और जो करता तो शिकायत करते  
दर्द अपनों ने दिया क्या कहें ज़माने को

जानकर तुमसे बहुत दूर चले आये हम
क्या करें यादों का आतीं हैं जी जलाने को 

Sunday 11 November 2012

यूँ ही होता जाता है

दीवान लिखा होगा तूने , कोई पढ़कर हमें सुनाता है
जिसके हिस्से में जो भी है , अपना क़िरदार निभाता है

लगता है ऐसा होता है , क्या सच में ऐसा होता है
या हम सब सोती रूहें है , कोई सपना हमें दिखाता है

तक़दीर का रोना रोते हैं जाने कब से ये अहले जहाँ
क्या सब कुछ पहले से तय है , या यूँ ही होता जाता है

हर पल इस फ़ानी दुनिया के हालात बदलते रहते हैं
बस एक दस्तूर नहीं बदला जो आता है वो जाता है

मेहेरबां बन कर

जो हो सके तो बस आओ दिलो जाँ बनकर
न करो कुछ भी मेहेरबां बन कर

बिना लिबास हूँ दाग़ों को देखती है ज़मीन
ढक दो ज़ख्मों को आसमाँ बन कर

कुछ कहेंगे तो फिर कहेंगे लोग बढ़ बढ़ कर
तमाम उम्र जिए है बेजुबाँ बन कर

मैं थक चुका ज़माने में फ़रिश्तों से मिल कर
मेरे घर आओ कभी इन्सां बनकर

Saturday 10 November 2012

यहाँ हर आदमी सुलगता है

दोनों हमजात हैं इंसान हैं हम
तू मेरा कुछ न कुछ तो लगता है

ये बात और है धुंआ न उठे
यहाँ हर आदमी सुलगता है

है कई लोग जो चैन से सो लेते हैं
और कोई सारी उम्र जगता है

जिसमें ताकत है साफ़ दामन है
जो है कमज़ोर दागदार लगता है

Friday 9 November 2012

अब जा चुकी बरसात

वो आते हैं मिलते हैं मगर बेरुखी के साथ
करते हैं इंतज़ार जिनका सारी सारी रात

हमको तो राहे इश्क़ में बस सिसकियाँ मिलीं
होता है इस तरह क्या हर एक आदमी के साथ

एक अश्कों का दरिया है ये मेरी ज़िंदगी
मुझसे न सही आँख से करते तो मुलाक़ात

कह दो ये गुंचों से न निकलें ज़मीन से
ये काँटों का मौसम है अब जा चुकी बरसात

Thursday 8 November 2012

निगाह बार बार मिलती है

नहीं मिलती है  किसी से राहत     
निगाह बार बार मिलती है

नहीं हासिल है ज़ख्म को मरहम 
तसल्ली बेशुमार मिलती है

धूप निकली है ज़माने में हमें
रोशनी भी उधार मिलती है

उठती मौजों में क्या करें हम भी
ज़िंदगी दरिया पार मिलती है

Wednesday 7 November 2012

वारदात बाक़ी है

कहो सहर से कि रात बाकी है
तुझसे कहनी थी बात बाकी है

चंद लोगों से ही मिला हूँ मैं
अभी तो क़ायनात  बाकी है

तू रूबरू है तब क्यूँ लगता है
कि तुझसे मुलाक़ात बाकी है
  
लुटे हैं फिर भी सोचते हैं लोग
कोई नयी वारदात बाक़ी है 

Monday 5 November 2012

विस्मित हो ,मत रो मन

जीवन से जीवन जन्मा है
इसी तरह बच पाया जीवन
मैं भीगा हूँ तुम भीगोगे
जब जब भी बरसेगा सावन

मेरा मेरा क्यूँ करता है
करना है तो राम राम कर
विष पी कर हंस शिव बन
अपना ले सबसे अपनापन

मैं जाऊँगा तुम आओगे
तुम जाओगे वो आएगा
काल चक्र की सुन  धुन 
विस्मित हो ,मत रो मन

Sunday 21 October 2012

तालीम अधूरी है अभी


दफ़्न करना मुझे मदरसे की फुलवारी में
मेरी तालीम अधूरी है अभी

भीड़ है इतनी कि लड़ता है बदन से बदन
दिलों के बीच में दूरी है अभी

तू जानता है डगर फिर भी  इन अंधेरों में
एक चराग़ ज़रूरी है अभी

न  मिला है न मिलेगा उम्र भर तू  शायद
मिलने  की आस तो पूरी है अभी

Sunday 14 October 2012

दिल है एक आईना

सोच कर तोडना दिल है एक आईना
आईने टूट कर फिर से जुड़ते नहीं

गर न हो हौसला मत बढ़ाना क़दम

प्यार के रास्ते पीछे मुड़ते नहीं
जिनको लगता है  पागल हवाओं से डर   
आंधियों में परिंदे वो उड़ते नहीं
जिनके रिश्तों की  बुनियादें मजबूत्त हैं
वो शहर छोड़ने से बिछुड़ते नहीं

Monday 8 October 2012

ऐ सियाही रात की अब

क़श्ती भी हूँ साहिल भी हूँ
रस्ता भी हूँ मंज़िल हूँ मैं
मोहसिन भी हूँ क़ातिल भी हूँ
आसाँ भी हूँ मुश्किल हूँ मैं

जैसी भी थीं महफ़िलें
वैसे ही पहने है लिबास
मैय्यत में हूँ रोता हुआ
बारात में शामिल हूँ मैं

जी में आता है जला दूँ
दुश्मनों के आशियाँ
क्या करूँ मजबूर हूँ
बच्चे का नन्हा दिल हूँ में
उम्र भर जलने के बाद
पूछता है ये चराग़
ऐ सियाही रात की अब
क्या तेरे काबिल हूँ मैं ?

Sunday 7 October 2012

देश एक टूटता है

देश एक टूटता है
बटता है सूबों में

सूबों से शहरों में
शहरों से गाँवों में

गाँव से गलियों में
गलियां तब घुसती हैं
घर के गलियारों में
बंद दरवाजों में

खुद को भरे बाहों में
मन के अंधियारों में

एक अकेला आदमीं
.........................
देश दूर छूट गया
बुरी तरह टूट गया
आदमी से आदमी

ईमान मर गया है

आओ सुलगते दिल पर कुछ रोटियाँ पका लें
नीचे कमर से बाढ़ का पानी उतर गया है

वो रोज़ ही करता है इंसानियत का खून
तुम झूठ कह रहे थे क़ातिल सुधर गया है

कौड़ी नहीं मिली है मुफ़लिस को अभी तक
चोरी का माल था जो इधर से उधर गया है

नंगों की नुमाइश में करे किस तरफ निगाहें
ख़ुद शर्मसार होकर ईमान मर गया है

Saturday 6 October 2012

इतनी सज़ा काफ़ी है

शबनमी बूंदों में आंसू मिला कर पी लिए मैंने
आज दिन भर के लिए इतना नशा काफ़ी है

तेरी यादों में इतने सख्त लमहे जी लिए मैंने

बकाया उम्र के लिए बस इतनी सज़ा काफ़ी है

सुलग रहा है तो वो कल ख़ाक भी हो जाएगा
दिल  से जितना भी निकलता है धुआं काफी है  


दहशत का दौर है , रात है दरवाज़े बंद रहने दे

इन दरीचों से जितनी  आती है हवा काफी
है

Thursday 4 October 2012

मुझे पता है

मुझे पता है बेवफा है तू
फिर भी मैं तुझसे प्यार करता हूँ

ये मोहब्बत ग़रीब की दौलत
सिर्फ तुझ पे निसार करता हूँ

बड़ी सजा है इस गुनाह की लेकिन
फिर भी मैं बार बार करता हूँ

बिछड़ा था तुझसे जिस दोराहे पर
वहीं खड़ा हूँ तेरा इंतज़ार करता हूँ

प्यार मजबूरी है कोई हक़ तो नहीं
टूटा दिल तार तार करता हूँ

Wednesday 3 October 2012

ज़िंदगी क्या है


नहीं मिला है कभी दर्दो ग़म
कैसे समझोगे ज़िंदगी क्या है

उम्र गुज़री है गर अंधेरों में
कैसे जानोगे रोशनी क्या है

तलाशते हैं जो रूप की दौलत 
वो क्या जानें कि सादगी क्या है

कहाँ से आके  कहाँ जाता है
किसने जाना है आदमी क्या है

मेरे मैय्यत में भी वो चुप ही रहा
उसने दिखलाया बेरुखी क्या है

Saturday 29 September 2012

क़र्ज़ा न दे सका




 पैदा करती है इन्सान को हाँ वही लड़की
ये आदमी जिसे इंसान का दर्ज़ा न दे सका

कितने प्यासों ने देहलीज़ पे दम तोड़ दिया
वो समंदर था एक बूँद भी क़र्ज़ा न दे सका

पढी है ग़ौर से मैंने भी मरासिम की क़िताब
गवाही तेरी वफ़ा की एक भी सफ़हा न दे सका

मसीहा रोशनी का  समझा  जिसको मैंने उम्र भर  
रातों को 
मेरी उजली सी सुबहा न दे सका  


Friday 28 September 2012

इलज़ाम मेरे सर आये

उसने देखा है मुझे प्यार की निगाहों से
खुदा करे ये वक़्त बस यहीं ठहर जाए

इस मुलाक़ात का कोई भी निशाँ न बचे
इससे पहले कि ये इलज़ाम मेरे सर आये

तेरी दीवारों से टकराया हूँ जाने कितनी बार
क्या ये मुमकिन है कभी तू भी मेरे घर आये

ये हौसला ये तसल्ली ये दुआओं का असर

क्या करेगा जो सरे शाम कोई मर जाए

नशा यादों का बना रहने दे रात बाक़ी है
मुझे डर है नीम शब ये भी न उतर जाए

Thursday 27 September 2012

प्यार का बस यही अंदाज़

तेरी हंसी तेरी खुशियों से प्यार करता हूँ
प्यार का बस यही अंदाज़ तो आता है मुझे

अपने ग़म से मेरे चेहरे के रंग बदलते नहीं
एक तेरा दर्द ही आकर के रुलाता है मुझे

Wednesday 26 September 2012

लिखते लिखते

है आज भी दिल में तेरी  रुसवाइयों का डर
कलम रुक रही  है तेरा नाम लिखते लिखते

पूजा है मैंने उम्र भर  कुछ  तुझको इस क़दर
नज़र झुक रही है तेरा नाम लिखते लिखते

बिकता  रहा सामान सब और मैं था बेखबर
एक बाकी बच गया है ईमान बिकते बिकते

बड़ी दूर तक जमाये रहा उस पे मैं नज़र
गुम हो गया  अचानक  वो शख्स दिखते दिखते

ये मेरा शहर नहीं

हो जाएँ बंद जब भी साँसों के सिलसिले
बाद उसके मेरे नाम की कोई सहर नहीं

क्यूँ पूछते हो बारहा मेरे शहर का नाम
मैं जिस में रह रहा हूँ ये मेरा शहर नहीं

धू धू सा जल उठेगा एक तेरी बेरुखी से
तिनकों का आशियाँ है पत्थर का घर नहीं

गर तोड़ने थे तुझको फिर क्यूँ बनाए रिश्ते  

 इन्हें फिर से जोड़ने को बाक़ी उमर नहीं 

Tuesday 25 September 2012

आदमी एक आदमी से जलता है


वक़्त के साथ यहाँ हर बशर पिघलता है
कोई होता है दफ़न और कोई जलता है

नहीं जुदा है ये  शाह ओ मुफ़लिस के लिए
जोड़ इस ज़िंदगी का शून्य ही निकलता है

अलग नहीं है तेरे  और मेरे ग़मों की तादाद
क्यूँ फिर आदमी एक आदमी से जलता है


ये बात और है बदलते रहते हैं क़िरदार
तमाशा ज़िंदगी का उसी तरह चलता है
 

Sunday 16 September 2012

कोई नया हादिसा



न झांकिए बेवजह दरीचों से
कोई नया हादिसा होता न दिखे

साथ महफ़िल में हंस रहा था वही
लिपटा दीवारों से रोता न दिखे



हमें था रश्क जिसकी खुशियों से
दर्द के बोझ को ढोता न दिखे

हमसे कहता था जागते रहना
मौत की नींद में सोता न दिखे
............

न झांकिए बेवजह दरीचों से
वो किसी और का घर है

आप डर जाएँगे देखने के बाद
मुझको इस बात का डर है

प्यार का अंजाम हूँ मैं


 साहिल की  ठुकराई  एक लहर की तरह
चलो बुरा ही सही प्यार का अंजाम  हूँ मैं

कुछ तो हासिल हुआ है मुझको तेरी शोहरत से
अहले दुनिया में तेरे नाम से बदनाम
हूँ मैं 

लोग कहते हैं मुझसे तुमसे भी कहते होंगे
उनके कहने के लिए बाइसे इलज़ाम
हूँ मैं

इन्ही वीरानों में कभी मय के दौर चलते थे
उन्ही मयखानों का टूटा हुआ एक जाम  हूँ  मैं 


मुझे ठोकर न लगा मैं भी तेरी नस्ल  से हूँ
उगती एक सहर है तू  डूबती एक शाम हूँ मैं 

Saturday 15 September 2012

आँख का पानी

गया है सूख हम सब की आँख का पानी
फ़लक में ढूँढिये बादल कि जिसमें पानी हो
मैं थक गया हूँ ऐ रहबर फ़रेबी वादों से
सुना वो बात कि जिसमें नयी कहानी हो

Sunday 9 September 2012

मेरे माज़ी के छिपे दाग़



तेरे दरवाजे पे ले आई हवा आज हमें
कल बहेगी ये जिस ओर  उधर जायेंगे


न हटा गर्द मेरी ज़िंदगी की परतों से
मेरे माज़ी के छिपे दाग़ उभर आयेंगे

तेरे रुखसारों के मानिंद सुर्ख़ ज़ख्म मेरे
वक़्त मरहम है एक दिन तो ये भर जायेंगे

तुम्हारे प्यार का साया है महफूज़ हैं हम
मन के आँगन से निकालोगे तो मर जायेंगे

Tuesday 4 September 2012

चलो इन हाशियों पर

चलो इन हाशियों पर प्यार के दो हर्फ़ लिख डालें
ख़तों में बेवजह खाली जगह देखी नहीं जाती

ज़माना रूठता है रूठ जाए हमको इससे क्या
बस एक तुम हो तुम्हारी बेरुख़ी देखी नहीं जाती

मेरे लिए काफ़ी है ये ही मैं जो तुझसे प्यार करता हूँ
अब तुमसे मेरी इतनी भी खुशी देखी नहीं जाती

हमें ही एक दिन बस छोड़ कर जाना है दुनियां को
ये दुनिया है ज़माने से कहीं भी ये नहीं जाती

और क्या है तू


फ़लक नहीं , ज़मीं नहीं हवा भी नहीं
आबो आतिश नहीं तो और क्या है तू

गिर के टूटें हैं  तो  आज ये  जाना हमने
हम हैं सब क़ैदी  मुश्किल बड़ी सज़ा है तू

ज़िंदगी तुझको सराहा है मिन्नतें भी कीं
एक दिन छोड़ के चल देगी बेवफा है तू

यहाँ होता है जो वो सच में नहीं होता है
सिर्फ होने का सा एहसास हो गया है तू


फ़लक --> आसमान , आबो  आतिश-->पानी और आग

Sunday 2 September 2012

एक दीवानी नज़र



एक दीवानी नज़र कितना देख सकती है
तुमको क्या समझे थे  क्या तुम निकले

मत बताना किसी  को कि  मर चुका हूँ मैं
सूनी राहों से जनाज़ा मेरा गुमसुम निकले

मेरी ख्वाहिश है मेरी मौत पे रोये न कोई
सिसकी भी अगर  ले  तो वो मद्धम निकले

माहताब के मानिंद चमकता रहे चेहरा तेरा  
जब भी देखूं मैं  तेरी आँख न पुरनम निकले



Saturday 1 September 2012

सरहदें बदलतीं हैं



क्या बताएं कि कहाँ तक है  दिल की दुनिया
रोज़ ही सरहदें बदलतीं हैं
आज मेरे हो  कल किसी और के हो सकते हो
बारहा चाहतें बदलती हैं
जब भी भर जाता है दिल आँख छलक जाती है
इस तरह हसरतें निकलती हैं
ज़रा जल जाएँ तो फिर कितना तड़पते हैं लोग 

शमाएँ सारी रात जलतीं हैं   

Friday 31 August 2012

कुछ दुआ कम है



प्यार सिमटे तो तेरे होठों तक
गर जो फैले तो ये जहां कम है

क़तरा बाकी नहीं जिगर में मेरे
उनको लगता है खूं बहा कम है

लोग बचते हैं मेरा नाम लेने से
आज रुसवाइयों का ये आलम है

तू मिला है न मिलेगा मुझको
मेरे हिस्से में कुछ दुआ कम है

क़त्ल कर के मेरा वो कहते हैं
 हुआ है जो भी वो हुआ कम है


Wednesday 29 August 2012

चाहता हूँ तुझे






तेरी कमियाँ पसंद आने लगीं
ऐसा लगता है चाहता हूँ तुझे

मांग कर रब से थक गया हूँ मैं
आज  तुझ ही से मांगता हूँ तुझे

मय से बुझती तो बुझ गयी होती
रूह की  प्यास कब  पीने से बुझे  

मेरी रग रग में रह रहा है तू 
दर ब  दर मैं तलाशता हूँ तुझे

Tuesday 28 August 2012

हम सादगी का तेरी

हम सादगी का तेरी करें किस तरह बयाँ
मासूमियत ही जैसे इंसान बन गयी है

कुछ पल के लिए आयी आँखों में तेरी सूरत
अब रातो दिन की जैसे महमान बन गयी है

एक तेरी आरज़ू भी कर ली  है जब से दिल ने
मेरी हर ग़ज़ल का जैसे उन्वान बन गयी है

मिलने से पहले तुझसे अपना वजूद भी था 
अब तू  ही ज़िंदगी की पहचान बन गयी है

तब दिल को धड़कना होता है

जाने कितनी ही रातों में , ये चाँद कहीं खो जाता है
भटकों को राह दिखाने को ,तारों को चमकना होता है

दुनियाँदारों का क्या कहिये ,हर क़दम संभल कर रखते हैं
तब मय का मान बढ़ाने को ,रिंदों को बहकना होता है

दिन से अक्सर लड़ते लड़ते , बेहोश बदन हो जाता है
जीवन की डोर चलाने को  , तब दिल को धड़कना होता है

शाखें पत्ते जब शाम ढले ,सब अपनी थकन मिटाते हैं
आबरू ऐ चमन बचाने को, फूलों को महकना होता है

Wednesday 15 August 2012

खरीदार ढूँढते हैं


क़त्ल महबूब का हमने अपने हाथों से किया है
आवारा
बन के गलियों में अब प्यार ढूँढते हैं

सब कुछ तो  बिक गया है सियासत के खेल में
अब देश बेचना है खरीदार ढूँढते हैं

जो सदियों से खाती रही  मौजों के  थपेड़े
उस टूटी हुई क़श्ती में रफ़्तार ढूँढ़ते हैं

अपने ही गुनाहों से मिली है हमें शिक़स्त
क्यूँ जा के बस्तियों में गुनहगार ढूंढते हैं
 

Friday 3 August 2012

एक मुश्किल सफ़र है

नहीं ग़म मुझे अपनी रुसवाइयों का
वो बदनाम ना हो मुझे इसका डर है

तुम आओ मगर मेरे पीछे न आओ

मेरा रास्ता एक मुश्किल सफ़र है

किसे दोस्त समझें किसे अपना दुश्मन

जो कल तक इधर था अभी वो उधर है

ना इनके भरोसे घर अपना सजाना

शमाओं का जलवा बस एक रात भर है

Thursday 2 August 2012

न है आईना न है रोशनी


न ज़मीर है न ख़ुलूस है , न है आईना न है रोशनी
ये बतायेगा हमें कौन अब ,है कैसी सूरते ज़िंदगी

जो मिला उसे भुला दिया, जो नहीं मिला उसे ढूँढती
एक हसरतों का हुजूम है , तेरी ज़िंदगी मेरी ज़िंदगी

हम बच गए हैं अंधेरों से , हमें मार डालेगी रोशनी
अपना क़फ़न खरीद कर, खुद को जलाएगा आदमीं


जो कहता था बड़े नाज़ से तेरे ग़म में मैं भी शरीक़ हूँ 
मुझे कब से उसकी तलाश
है कहाँ खो गया है वो आदमी 

Sunday 15 July 2012

किसी फ़क़ीर की दुआ हूँ मैं


ज़ेहन में ज़िंदा हैं यादों के फूल
इतना बंजर नहीं हुआ हूँ मैं

अपने सीने में सजा कर रख लो
किसी फ़क़ीर की दुआ हूँ मैं

तेरी खुशियों से दूर हूँ फिर भी
तेरे  हर ग़म से आशना हूँ मैं

मेरे हमदम मुझे बाहों में न भर
हवा में फैलता धुआं हूँ मैं

लफ़्ज़ों की शक्ल में आंसू बन कर
कितने जन्मों से बह रहा हूँ मैं

इस क़दर डूबा तेरी आँखों में
अब तो ख़ुद को ही ढूंढता हूँ मैं










Thursday 5 July 2012

परछाइयाँ नहीं जाती





वक़्त आ कर के चला जाता है
उसकी परछाइयाँ नहीं जाती

इतना भीगा है आंसुओं से दामन
अब तो खुशियाँ सही नहीं जातीं

प्यार खामोशियों में पलता है 
सारी बातें कही नहीं जातीं
 
लोग शोहरत तो भूल जाते हैं
पर ये रुसवाइयां नहीं जातीं

काम  आती नहीं मेरी तालीम
उन की आँखें पढी नहीं जातीं

इतने लोगों से घिरा रहता हूँ
फिर भी तनहाइयां नहीं  जातीं 

Thursday 14 June 2012

मंज़िल किधर गयी


मुश्किल है दौर इतना और उम्र थक गयी
अब किससे जा के पूछें मंज़िल किधर गयी

बाज़ार में पूछा था "इंसानियत मिलेगी ?"
सब हंस के कह रहे थे "वो कब की मर गयी "

ना जाने क्यूँ हम उसकी नज़र से उतर गये
तस्वीर जिसकी नज़रों  से दिल में उतर गयी

दीवानेपन की इंतिहा थी  तुझसे   मोहब्बत
एक तू ही तू दिखता था  जहाँ तक नज़र गयी  

Thursday 31 May 2012

मैं तो शहर की फ़िक्र में अक्सर नहीं सोता
सुनते है हुक्मराँ की भी नींदें हराम हैं

सुन ग़ौर से क्या कहती है बहती हुई हवा
कहने को तू आज़ाद है तेरा दिल ग़ुलाम हैं

उसने कहा उसे मेरी सेहत का है ख़याल
सच पूछिये तो मौत का सब इंतज़ाम है

माथे की सलवटें नहीं हैं तर्जुमा ए उम्र
वो ही जवां है हसरतें जिसकी जवान हैं

Monday 28 May 2012

इसकी तस्वीर बदल दूं

ख़ुद न आया था यहाँ तूने मुझे भेजा था
जब भी तक़दीर बुलाएगी चला जाऊँगा

बहुत लूटा है चमन को ही चमन वालों ने
इसकी तस्वीर बदल दूं तो चला जाऊँगा

मुझको इंसान बनाया है तो मुझे हिम्मत दे
ज़ेहन में रोशनी दिल में मेरे शराफ़त दे

मुझको घेरे खड़ा है वहशी दरिंदों का हुजूम
ज़िंदगी दी है तो फिर जीने की भी ताकत दे

Saturday 26 May 2012

उसके घर की ओर से आती हवा क्यूँ इतनी नम है
ऐसा लगता है कि सारी रात वो रोता रहा है
जिस घड़ी से दिल बना ,और दिल को इतने ग़म मिले हैं
प्यार की दुनियां में सदियों से यही होता रहा है

Saturday 28 April 2012

सुबह आयी है ख़बर

सुबह आयी है ख़बर ज़िंदा हूँ
कल था चर्चा, नहीं रहा हूँ मैं

एक ग़ज़ल लिखी है तेरे नाम
उसी की धुन बना रहा हूँ मैं

दिया सच का हवा से न बुझे
हथेलियों को जला रहा हूँ मैं   

होठ हँसते हैं जिगर घायल है 
रस्मे दुनियाँ निभा रहा हूँ मैं

Monday 23 April 2012

चुप हो गए हैं साज़

ठहरे पानी में लहर उठे पल में मिट जाए
कुछ इस तरह से आ के गए ज़िंदगी से तुम

उठ चुकी है महफ़िल चुप हो गए हैं साज़
क्यूँ देता है आवाज़ अब भी तेरा तरन्नुम

कश्ती को समंदर में ले जाना है आसान
डूबेगी , पार जायेगी ये किसको है मालूम

तू जान भी दे दे तो नहीं बदलेंगे ये लोग
नंगों के शहर में हैं खुद्दार बहुत कम

 

Sunday 22 April 2012

ये रंगे हिना


कौन जाएगा यहाँ से  और कौन आएगा 
होता है ये हम सब की  इजाज़त के बिना

मरने  वालों ने आगाह किया है फिर भी
कौन जी पाया ज़माने में मोहब्बत के बिना
न मिट सकेंगे मेरे दिल पे निशां चोटों के
तेरे हाथों से उतर  जाएगा ये रंगे हिना

तूने तो रखा  होगा अपने तीरों का हिसाब
न मैंने  वार  गिने और नहीं ज़ख्मों को गिना

दुआओं की तरह


चमन में खेलती इठलाती हवाओं की तरह
घरों में बेटियां आतीं हैं दुआओं की तरह

मैंने एक नाम पुकारा था कभी सावन में
मन के आँगन में बरसता है घटाओं की तरह

इलाज जिसका कोई कर सके न चारा गर
दो मीठे बोल असर करते दवाओं की तरह

प्यार के नग़में सुनाता हूँ पर्वतों को मैं
गूंजते हैं मेरे कानों में सदाओं की तरह

Wednesday 18 April 2012

बच के रहिएगा शमाओं से


बच के रहिएगा शमाओं से तो अच्छा होगा
आग लग जाती  है तिनकों के घर में

कहीं से ढूंढ के रक्खो तुम एक अपना क़ातिल
अब अपनी मौत से मरता नहीं कोई शहर में


अपनी  बाहों में छिपा ले ऐ आसमां इसको 
ज़मीं महफ़ूज़  नहीं अपने ही दीवारो दर में 


मत गिनो उनको जो देहलीज़ पे जलते हैं चराग़
न जाने कौन सा बुझ जाए आज रात भर में

Monday 16 April 2012

आँख लगी है अभी

ये मानता हूँ निकल आया सलोना सूरज
उसे सोने दो उसकी आँख लगी है अभी

मिला है वक़्त अभी और जीते रहने का
तू मिलेगा ये तमन्ना नहीं मरी है अभी
है फ़िक्र उनको कि घर में अभी अँधेरा है
इन चराग़ों में थोड़ी सी रोशनी है अभी

उस परी पैकर के तसव्वुर में मुझे रहने दो
खो गया चाँद मगर दिल में चांदनी है अभी

Tuesday 10 April 2012

काँटों की हिमाक़त

कैसे बयान हो मेरी रूदादे मोहब्बत
डर है कि न मिट जाए कहीं तेरी ये शोहरत

प्यार होगा कोई एक खेल तेरी दुनिया में
समझा है इसे मैंने उस रब की इबादत

कह सकते हो तुम हाँ कोई दीवाना था
मैंने तो इसकी उम्र भर दी है बड़ी क़ीमत

नादाँ हैं चले आते हैं चुनने को यहाँ फूल
उनको नहीं मालूम है काँटों की हिमाक़त

गुनहगार नहीं हो

यूँ  इस तरह  न छिपाओ  चेहरा
खूबसूरत हो,  गुनहगार नहीं हो

कैसे समझाएं अहले दुनियाँ  को
बाज़ार में आये हो , बाज़ार नहीं हो

कोई नहीं बचा है अब शरीफ़ शहर में
एक तुम हो, मानने को तैयार नहीं हो

दर्दे निहाँ से मर गया वो चीखता रहा
और लोग ये कहते रहे बीमार नहीं हो

पिलाई इस क़दर तूने

पिलाई इस क़दर तूने ऐ ज़िंदगी हमको
रगों में खून नहीं अब शराब बहती है

हवा को जितना जला देता है दिन में सूरज
रात भर उसकी तपिश सारी ज़मीं सहती है

एक दिन होगा धुंआ ये तेरा भी शोख़ बदन
ये मैं नहीं ये तेरी ढलती उम्र कहती है

Sunday 8 April 2012

मेरे हाथों में लकीरें हैं कई

मैंने हर बात कही है तुमसे  
तुम भी  कुछ  बात  कहो

मेरे हाथों में लकीरें हैं कई
तुम इनमें से कौन सी हो

नींद आयी थी एक पल के लिए 
होश आया है चलो और सहो

दिल के दरवाज़े से आती यादें
अब कहाँ जाओ कैसे  दूर रहो 

इन हवाओं से क्यूँ लड़े कोई
जहाँ बहती हैं इनके साथ बहो

जुगनुओं की तरह


हर दिल पे नहीं रुकती मोहब्बत की इबारत
कुछ ख़ाली  ही रहते हैं हाशियों की तरह
मैं भी पलकों पे तेरा नाम लिखा करता हूँ
हर्फ़ बह जाते हैं पल भर में आंसुओं की तरह

मुस्तक़िल  रख बना के आग तू निगाहों में
क्यूँ चमकता है रह रह के जुगनुओं की तरह

बड़ा ही बेरहम निकला ये डूबता सूरज
सांझ रोई न रुका वो मेरी खुशियों की तरह

Thursday 5 April 2012

समंदर बन गया होगा

इंसान की आँखों से ही निकला है ये खारा पानी
प्यार रोया होगा सदियों ,समंदर बन गया होगा

मोहब्बत में नहीं घटते कभी भी जिस्म  के छाले
जबीं का  भर गया होगा जिगर में बन गया होगा
 

कई दिन बीत जाते  हैं  इमारत  को बनाने में
तब कैसे एक ही पल में जहां ये  बन गया होगा


है क्या पहचान उस रब की हमें कोई बताये तो   
वो ऐसा है नहीं वैसा ये किस्सा बन गया होगा 
 
कई राहों को एक मरक़ज़ पे मिलते हमने देखा है
निकल जाता है चौराहा तो फिर राहें नहीं मिलतीं

ज़मीं की धूल से अपना बना के रखतीं हैं रिश्ता
इमारत टूटने से ऐसी बुनियादें नहीं हिलतीं

फ़िज़ा माक़ूल रहने से चमन गुलज़ार रहता है
हवाएं गर्म हो जाएँ तो कलियाँ भी नहीं खिलतीं

उसे हम याद करते हैं उसी का ग़म भुलाने को
वो यादें दर्द दे जाती हैं ज़ख्मों को नहीं सिलतीं

Wednesday 4 April 2012

टूटता तारा मैंने देखा है

उठी है उनकी इस ओर नज़र
काश दुनियां यूँ ही ठहर जाए

प्यार में जान है हथेली पर
या लुटे दिल या जल जिगर जाए
काम आयी नहीं है कोई दलील 
मौत मेरी ये काम कर जाए

ज़ेहन में बस गयी है उनकी याद
उससे कह दो उन्ही के घर जाए
लोग इस तरहा हुए  हैं बर्बाद
देखने वाला भी सिहर जाए
टूटता तारा मैंने देखा है
आज की शब कोई न मर जाए


तेरे चेहरे का शबाब

जब नहीं होतीं हक़ीक़त में हसरतें पूरी
दिल को बहलाने चले आते हैं ख्वाब

बड़ा बेदर्द है हरजाई है ये मौसमे गुल
कहीं न लूट ले तुझसे तेरे चेहरे का शबाब
कितनी ताज़ा है और कितनी पुरानी चोटें
दिल भी रखता है क़रीने से उनका हिसाब

तूने मदहोशी में औरों पे किये थे जितने
तुझे देना ही पड़ेगा हर सितम का जबाब

Monday 2 April 2012

सुबह की हवा

जो कहोगे वो दिल से निकाल कर देंगे
मांग लो कुछ भी बस एक अपने सिवा

दिन जो देता है उसे रात मांग लेती है
खाली दामन से खेलती है सुबह की हवा
यूँ हिक़ारत से न देखो तुम मेरा उघड़ा बदन
गर्दिशे वक़्त ने छीनी है मुझसे मेरी क़बा

Friday 30 March 2012

तेरे आगोश में



तेरे आगोश में बरसों जिए हैं काली रात
बस एक चराग़ से तू इतनी परेशां क्यूँ है

मैं तो बेताब हुआ बैठा हूँ मरने के लिए
तेरी महफ़िल में मेरे क़त्ल का चर्चा क्यूँ है

गुज़ारी  सारी  उमर सिसक सिसक
ज़िंदगी देने का मुझ पे तेरा अहसाँ क्यूँ है

लोग मर मर के दिए जाते हैं इसको तोहफ़े
ये क़ब्रगाह  फिर भी  इतना बयाबाँ क्यूँ है

Thursday 29 March 2012

सैय्यादों की सूरत

निकल के क़ैद से  बैठा है मायूस परिंदा
उड़ने का सलीका  उसे अब याद नहीं है

तू खुश है देख कर के  दरवाज़े की रौनक
अंदर के अंधेरों का  तुझे अंदाज़ नहीं है

सरहद से आ रहा है गोलियों का शोर
तेरे किसी हमदर्द की आवाज़ नहीं है
आई है नये रंग  में  सैय्यादों की सूरत
जो कल थी तेरे सामने वो आज नहीं है

Tuesday 27 March 2012

तस्वीर इस ज़माने की

मिन्नतें की थीं न आना कभी तू मेरे घर
बहुत बेदर्द है ये दर्द चला ही आया

कोशिशें करता रहा उससे दूर जाने की
मेरे बदन से लिपटता रहा मेरा साया
मांगती है हिसाब उम्र वक्ते रुखसत पे
बन के मेहमान बता  तूने यहाँ क्या पाया 

जिसे बदलनी थी तस्वीर इस ज़माने की 
अपनी ख़ुद की ही तस्वीर को  मिटा  पाया

Sunday 18 March 2012

बेबस है सच कुछ इस तरह


काली काली बदलियों से झांकता सूरज हो जैसे
इस जहां में हो गया बेबस है सच कुछ इस तरह

अश्कों  से भीगी है चूनर  उनको अब आराम है  
काश मेरा मन  भिगो देता मुझे भी  उस तरह

जिन दरख्तों की क़तारों पर लिखे थे हमने नाम
कट गए वो एक घनी बस्ती बनी है उस जगह

जिस के आने से मिले माज़ूर  को कुछ रोटियां  
आओ मिलकर  ढूंढ  के    लायें कोई ऐसी सुबह 

Saturday 17 March 2012

तो जीना मुख़्तसर क्यूँ हो


तेरे इन आंसुओं का मुझपे अब इतना असर क्यूँ हो
छुड़ाया हाथ तुमने था तो तोहमत मेरे सर क्यूँ हो

मेरे दुनियां में रहने से क़यामत तो नहीं होगी
अगर जाना मेरा तय है तो जीना मुख़्तसर क्यूँ हो
मेरे आने की कोशिश तू , मेरे जीने की ख्वाहिश तू
मेरे जाने का बाइस तू , तो फिर ऐसा  भी डर क्यूँ हो

कहीं ज़ाहिर कहीं पिनहाँ   गुनाहों की किताबें  हैं
अगर बिजली को  गिरना है , तो वो मेरा ही घर क्यूँ  हो

किसी से भी न कहना तुम मेरा किस्सा ऐ बरबादी
वो अंजामे मोहब्बत आज रुसवा दर ब दर क्यूँ हो



Friday 16 March 2012

रूप कैसे तबाह होता है


रूप कैसे तबाह होता है
वक़्त का आइना दिखाता है

खुशी आती है दस्तक देकर
दर्द चुपके से चला आता है
मैं पुकारता हूँ बीते लमहों को
कौन जा कर के लौट पाता है

उसके सीने में झांक कर देखो
वो जो महफ़िल में मुस्कराता है

जिसकी शोख़ी से है चमन गुलज़ार 
पल में वो फूल बिखर जाता है

बन के मिटती हैं रोज़  तस्वीरें 
दाग़े दामन कहाँ मिट पाता  है

सुना इंसान यहाँ रहते हैं

संग दिल राह दिखाने वाले
कुछ नहीं करते मगर कहते हैं

दरिया दिल राह पे चलने वाले
सिर्फ सुनते हैं और सहते हैं

कितने मासूम हैं ये भूखे लोग
हवा के साथ  साथ बहते हैं

मुझे जितने मिले पत्थर ही मिले
सुना इंसान यहाँ रहते हैं
 

Thursday 15 March 2012

ये चंचल हवा भी



बड़ी है शोख़ ये चंचल हवा भी
कि जब देखो नए चेहरे दिखाती है

अगर रुक जाए पिघलता है बदन
जो चलती है तेरा आँचल उड़ाती है

दिल के कांटे तो निकल जाते हैं
पर चुभन उम्र भर सताती है

चढ़ रहा है तेरे शबाब का सूरज
और मेरी शाम ढली जाती है


Wednesday 14 March 2012

ये मौसमे बरसात

ये ढलती रात ,ये तनहाई,तसव्वुर तेरा
उसपे ये मौसमे बरसात है बेदर्द बड़ा

तोहमत न लगा बादाकश नहीं हूँ मैं
पपीहे ने कहा 'पी पी ', मुझे पीना पड़ा

कहाँ से लाऊं उजाला मैं आज अपने लिए
मेरे साए का अँधेरा मेरे पीछे है खड़ा
सहारा न दे बदन को  मगर हाथ तो दे
ये इम्तिहान बड़ा है और ये वक़्त कड़ा
 

Tuesday 13 March 2012

आके ज़रा रक्स तो कर


अभी ज़ेहन में बचे हैं कुछ यादों के फूल
सींचते हैं अश्कों से जिनको शामो सहर

उसके अंदाज़े तरन्नुम को बसा लूं दिल में
अभी चलता हूँ तेरे साथ मेरी मौत ठहर
मैं  हवा में तेरी   पायल  की  खनक  सुनता हूँ
मेरी आँखों में कभी आके ज़रा रक्स  तो कर

जाने कब तक है मेरे साथ ये साँसों का सिलसिला
कुछ  बता  कर  तो  हादिसे  नहीं  होते  अक्सर 

Sunday 11 March 2012

किससे अब कहा जाए

मुख्तलिफ़ है ऐ रहबर तेरा अंदाज़े क़त्ल
मौत तो मौत है वो जिस तरह भी आ जाए

जिसको देखो वो ही खंजर लिए है हाथों में
दवा दो ज़ख्म न दो किससे अब कहा जाए
कौन है वाली ओ वारिस यहाँ मजलूमों का
तुम्ही बताओ किससे वास्ता रखा जाए

जो भी आया नया हाक़िम उसी ने मारा है 
कितने दिन और अब ये सितम  सहा जाए

Saturday 10 March 2012

जलन बढती जाती है


उसी गुलाब में कांटे भी छिपे बैठे हैं
जिस की खुशबू तुझे मदहोश किये जाती है

लोग जो हँसते हुए दिखते हैं इस बस्ती में
उनकी रूहों से सिसकने की सदा आती है
...
हम भी देखेंगे इस बरस ये सावन की हवा
लूटती है हमें या मोतियाँ बरसाती है

ढूंढ के लाओ कोई फिर से नया चारागर
मर्ज़ जाता नहीं है बस दवा बहलाती है

क्या कहें हम तेरी आँखों की शराब
जितना पीते हैं उतनी प्यास बढ़ती जाती है

सभी ने रस्म निभायी है

चढ़ता सैलाब  जिन्हें  दूर  किया करता है
क़श्तियाँ जोड़ती आयी  हैं उन किनारों  को

सभी ने   रस्म निभायी है मुरझाने की    
गुलों का  क़र्ज़ चुकाना है इन  बहारों को 

ढलता सूरज हूँ प्यार न कर मुझसे ऐ शाम 
कोई आवाज़ नहीं देता टूटे तारों को

रोते  हैं सर छिपा कर के  अपने दामन में
कोई कंधा नहीं देता है ग़म के मारों को

Wednesday 7 March 2012

मिली थी चांदनी

ढल रही है शाम थक कर बुझ गया सारा शहर
अब नहीं लगता है जैसे अब भी कुछ होने को है
करते हैं महफ़िल तेरी तेरे हवाले ऐ ज़मीं
आख़िरी ये मरहले और ज़िंदगी सोने को है
 
रंग जितने पत्तियों में भर सकी वो भर चुकी
शाख़ की किस्मत में बाकी क्या सिवा रोने को है

चाँद को सौंपेंगे जो उससे मिली थी चांदनी
साथ लाये थे क्या हम , इस वक़्त जो खोने को है

यहाँ भूखे हैं लोग

झूठे वादे न कर रहबर यहाँ भूखे हैं लोग
ज़िंदगी एक  हक़ीक़त है कोई ख्वाब नहीं

कोई बहाना नया फिर से ढूँढ मत साक़ी
कभी पियाला नहीं तो कभी शराब नहीं 

ये ढलती उम्र है इतने सवाल करती है
और मेरे पास इनका कोई  जवाब नहीं

 जीना होगा तुझे ऐ दोस्त  इन्ही  कांटो में
 चमन में बाकी अब एक भी  गुलाब नहीं



 

Tuesday 6 March 2012

पत्थर सनम निकला

मुतमइन था तेरा ग़म है कि वो भी मेरा ग़म निकला
समझते थे जिसे हम आशना पत्थर सनम निकला

किसी प्यासे ने साहिल पर कभी एक बूँद माँगी थी
वो राही अब भी प्यासा है समंदर बेरहम निकला
मैं गाफ़िल था मुझे ही रंज   है    तेरे    बिछड़ने का
जो छू कर हाथ से देखा तेरा आँचल भी नम निकला

जो दिल में रखता है   बिजली  वो बादल आतिशी  होगा
जब  पानी बन के बरसा  तो मेरा ये भी वहम निकला

मेरी तनहाइयां तनहा न करो

इतनी इज्ज़त से मेरा नाम न लो
मेरी रुसवाइयां रुसवा न करो

दूर  रह  कर ही  मुझे जीने दो 
मेरी तनहाइयां  तनहा   न करो

मुझे नफ़रत ही रास आती है
इस तरह प्यार से देखा न करो


मिला है ग़म  तो क़लम चलती है
सितमगरी में कुछ कमी न करो

 

Monday 5 March 2012

चेहरा हर बार वही आता है

जो भी आया यहाँ तड़पता रहा
कौन इसमें सुकून पाता है

प्यार साग़र भी है और आग भी है
जो नहीं डूबता , जल जाता है
उफ़क़ तक ही दिखी हद जिसकी
रास्ता दूर तलक जाता है
सिक्का  दोनों तरफ़ से एक सा है 
चेहरा  हर बार 
वही आता है
 
 

Sunday 4 March 2012

नफ़रत की बयार

चाहतों का दौर तो गुम हो गया
अब यहाँ बहती है नफ़रत की बयार

उनसे उम्मीद क्या करें जिनको
नहीं मालूम क्या होता है प्यार

पहले रहते थे जहाँ कुछ आशना
उन घरों में बन गयीं ऊंची दीवार

जी चुके हिस्से की अपनी ज़िंदगी
कौन अब देगा हमें साँसें उधार

Saturday 3 March 2012

मेरे पाँव में कांटे बन कर


संभल के कितना चलूँ ऐ ज़िंदगी तू बता
लोग चुभते है मेरे पाँव में कांटे बन कर

ज़रा सी बात हवाओं से अगर कहता हूँ
बढ़ के तूफ़ान उमड़ते हैं फ़साने बन कर

जिनको ये राहे मोहब्बत  लगती थी सहल
अपने घर लौट गए कितने दिवाने बन कर
एक रात जी  न सके परिंदे  चमनज़ारों  में   
मर गये शाखों पे   तीरों के निशाने बन कर 
हमें था नाज़ कभी जिनकी आशनाई पर
पेश आये क्यूँ वो  हमसे बेगाने बन कर
 

Friday 2 March 2012

पत्थर तो न था

वो गुज़रना तुम्हारी गलियों से
था इत्तेफ़ाक, जानकर तो न था

इतना बदनाम किया है तुमने
मैं भी इंसान था पत्थर तो न था

ये शाखें आँधियों ने तोडी है
गुनाहगार एक शजर तो न था

मैं लुटा हूँ मुझे ऐसा एहसास

तेरे मिलने से पेश्तर तो न था


 
 

Thursday 1 March 2012

वो गुज़रा ज़माना

अगले बरस ऐ सावन जब लौट के आना
एक दिन के लिए लाना वो गुज़रा ज़माना

बदली सी घिरी आँख में और भीगी निगाहें
तेरा यूँ ही मचलना और  मेरा मनाना

कितनी ही कश्तियों को साहिल नहीं मिले
ग़र्दिश भी ढूंढ लेती है कोई झूठा बहाना

जागा हूँ सारी रात अब है आख़िरी पहर
लग जाए मेरी आँख मुझे तुम न जगाना

Sunday 26 February 2012

इसी तरह हुआ है अक्सर

इसी तरह हुआ है अक्सर
ज़रा से लोग लूटते हैं शहर

चेहरे इतने हैं बज़्म में फिर भी
वो नहीं जिसको ढूंढती है नज़र
...
जब से आये हो मेरी आँखों में
नींद आती नहीं है आठों पहर

हम तुझे भूल चुके हैं फिर भी
क्यूँ रुलाता है इतना दर्दे जिगर

ख़ुद को शीशे में देखता हूँ मैं
नज़र आता है क्यूँ तेरा पैकर

उधर होती है सियासत पे बहस
इधर जलता है एक ग़रीब का घर

मेरे आँगन में धूप बाकी है
अँधेरी रात मेरे घर न उत