Tuesday 27 November 2012

संवरना न आया


खड़े रह गए यूँ ही दरिया किनारे
नादाँ थे हम पार करना न आया

झुकी उन निगाहों के भीगे इशारे
एक हम थे हमें प्यार करना न आया

संवर कर वो आये तसव्वुर में मेरे
क्यूँ मेरी नज़र को संवरना न आया

खुली चांदनी थी और इठलाती लहरें

हमें झील में ही उतरना न आया

चमन में खिले थे गुलाबों के गुंचे 
मेरे रूप को तब निखरना न आया

बहकती हवाओं ने शाखें हिलाईं
हमें वादियों में बिखरना न आया

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