Wednesday 28 September 2011

आँगन के राज़

आँगन के राज़ रखते हैं ये बंद दरीचे
गुल जानता है कैसे हैं ये बाग़ बग़ीचे

जी चाहता है
सबसे
  चले जाएँ कहीं दूर
है कुछ तो क़शिश तुझ में  जो रखती है  खींचे


इस फ़र्श की टूटी हुई ज़मीन सुधारो
क्यूँ इस पे बिछा डाले हैं ये महंगे ग़लीचे

चलती है बड़े ज़ोर से झूठों की तिजारत
सच डर के छिप गया है अब क़दमों के नीचे

हर चाल जो  चलता था   खोल कर आँखें
पल भर में फ़लक  पहुँच गया पलकें मींचे
 

साँसों का क़र्ज़ था

बाहोश मैं रोया था मेरी बेख़ुदी न थी
नज़रों को झुका लेना मेरी बंदगी न थी

गिरना तेरी गलियों में पहले से ही तय था
उल्फत का रास्ता था जहाँ रोशनी न थी

साँसों का क़र्ज़ था सो चुकाते चले गए
कहने को हम ज़िंदा थे मगर ज़िंदगी न थी

एक चेहरा ढूंढते थे खुली खिडकियों में हम
हमको तेरी तलाश थी आवारगी न थी

Sunday 25 September 2011

तब भी तो थी दुनियां

जब मैं यहाँ नहीं था तब भी तो थी दुनियां
कल मैं नहीं रहूँगा कोई और तो होगा

मरने से ही बदलेगी खामोश ये फ़िज़ा
मैय्यत पे लोग रोयेंगे कुछ शोर तो होगा

क्या मेरा आना जाना महज़ इत्तेफ़ाक़ था
मेरा मेरे नसीब पे कुछ ज़ोर तो होगा

मुझको नहीं है अपनी तिश्ना लबी का ग़म
कल वो तेरी महफ़िल में सराबोर तो होगा

Friday 23 September 2011

इमारत क्या बनाएं हम

अँधेरी शब , चराग़ों  में भी थोड़ी रोशनी है कम
कहाँ है वक़्त अब इतना कि तुम रूठो मनाएं हम

ये हम सब चाहते हैं हो हमारे सर पे एक साया
जहां बुनियाद टूटी हो इमारत क्या बनाएं हम

वही जो लोग कहते थे कि मेरा घर बचायेंगे
उन्ही सब ने तो लूटा है किसे अब आज़माएँ हम

यही  मेरा भी  क़िस्सा है  वही तेरी कहानी है
हजारों बार उसको कह के  क्यूँ  आंसू बहायें हम

Wednesday 21 September 2011

गिरता दरख़्त

गिरता दरख़्त देता है शाखों को तसल्ली
तूफ़ान से मत डरना मैं हूँ तुम्हारे साथ

डूबते एक शख्स ने लोगों को दी आवाज़
ले जाऊँगा उस पार तुम मेरा पकड़ लो हाथ
नस नस पे जिसके आज ज़माने का क़र्ज़ है
निकला है सारे शहर को अब बांटने खैरात

दावत के इंतज़ाम में सब लोग हैं मसरूफ़
अब किस को हम बताएं नहीं आयेगी बारात
 

Saturday 17 September 2011

नशा माज़ी का है

यादों की झील में आये हैं शराबी झोंके
रक्स करने लगा है अक्स तेरा पानी में

कुछ नए रंग उभर आते हैं मेरे चेहरे पे
ज़िक्र आता है तेरा जब मेरी कहानी में

मुड के   पीछे मैं जो देखूं तो ख़्वाब लगते हैं
जितने रंगीन मनाज़िर थे उस जवानी में

तेरी मखमूर निगाहों के हम हैं मश्कूर
नशा माज़ी का
है हलका सा जिंदगानी में
 

Friday 16 September 2011

रूप की धूप

रूप की धूप एक दिन तो ढल जायगी
छाँव जीवन के आँगन में पल जायगी
तुम पुकारा करोगे रुको थोड़ी देर
चांदनी मुंह चुरा कर निकल जायेगी

ज़िंदगी को उसी दिन समझ पाओगे
कैसे होती है टूटे बदन में थकन
तुमने जिन पर लुटाये थे अरमां सभी
अब वही लोग देते हें कितनी चुभन

थोड़ी सी दूरियां तो बना कर रखो
कुछ सम्हल कर चलो हर नए मोड़ पर
ख़ुश्क मौसम के आने की आहट सुनो
जाना है पत्तों को डालियाँ छोड़ कर


सहरा की रेत  जैसी है ये  ज़िदगी
इस पे बचते नहीं हैं  क़दम के निशाँ
हश्र उनका भी एक दिन यही धूल है
तुम बना लो यहाँ जितने भी आशियाँ
    
 

 
 

पाँव के छाले

मैंने देखा है तेरी आँखों में गहरा साग़र
मैं तेरा हूँ ,न छुपा मुझसे पाँव के छाले

तू बाँट सकता है अब दर्द अपने सीने का
चले गए हैं सभी रस्म निभाने वाले

कोई कमी न बरत हमको आज़माने में
अभी जिंदा हैं तेरे नाज़ उठाने वाले
सोया  जो एक बार तो जगूंगा नहीं
तुझसे वादा है मेरी नींद उड़ाने वाले
 


Thursday 15 September 2011

ग़र तमन्ना है



ग़र  तमन्ना है थोड़ी   देर और जीने की
अपने आग़ोश  में भर लो खुली हवाओं को  
 
भिगाती जाएँ  सारी रात  बारिश की ये बूंदे
बना  के रक्खो तुम महमान  इन  घटाओं को

ज़मीं मेरी है उसी से लिपट के रो लूँगा
क्यूँ सुनाऊं मैं दर्द अपना इन फिज़ाओं को

किसे मालूम है क्या लाएगा नया लमहा  
सम्हाले रखना बुरे वक़्त में दुआओं को

Wednesday 14 September 2011

मौत तय है

ज़िंदा रहना है तो फिर जान रख हथेली पे
मौत तय है जो ख़ुद अपने से डर जाए कोई

ये बात और  है मेरी आँखों में  बहुत पानी में
कितना रोऊंगा अगर शाम को मर जाए कोई

मुझे बता के जो जाए उसे आवाज़ भी दूँ
कैसे रोकूंगा जो चुपचाप गुज़र जाए कोई

तू  कौन  है और क्या है तेरे  घर का निशां
कैसे  ढूंढे   तुझे  ग़र तेरे शहर जाए कोई
एक रहबर भी ज़रूरी है क़ाफ़िले के लिए
ये न  हो  कोई  इधर जाए  उधर जाए कोई

Tuesday 13 September 2011

शर्मिंदा हूँ


बहुत  पहले ही हो  चुका था दफ़न 
ये क्या कम है कि फिर भी ज़िंदा हूँ


बग़ैर पंख के  परवाज़ की तमन्ना है
कितना माज़ूर हूँ बेबस हूँ एक परिंदा हूँ

न पिला मुझको शिकस्तों की शराब 
अपनी नाकामियों से  पहले ही शर्मिंदा हूँ


बिला वजह न काट देना मुझे ऐ दोस्त
तेरे बदन की मैं ताकत हूँ मैं  रगे जां हूँ

ग़र बचेगी ज़िंदगी

क़ातिलों से भर गयीं हैं बस्तियां    
कितना तनहा हो गया है आदमी

इस अँधेरे में उठा कर अपने हाथ  
किस से मांगें क़र्ज़  थोड़ी रोशनी
 
अपने घर  वापस तभी जा पाओगे
लौटने तक ग़र  बचेगी   ज़िंदगी    

मुफलिसी से  है मेरा  नंगा बदन
लोग कहते हैं   जिसे  आवारगी

आज हम आज़ाद हैं कैसे कहें
अपने घर में हो गए हम अजनबी

जो भी सच बोलेगा मारा जाएगा
क्या यही है तेरी सच्ची रहबरी
गोरा क़ातिल अपने घर वापस गया
अब लहू पीता है काला आदमी

Monday 12 September 2011

ज़ख्म अब दिल के

ज़ख्म अब दिल के पुराने हो गए हैं
तुम से  बिछुड़े ज़माने हो गए हैं

राहे उल्फ़त पर चले थे साथ मिलकर
अब तो वो  भी फ़साने हो गए हैं

मार कर इंसान को करते इबादत
लोग भी कितने दीवाने हो गए हैं

अब हमें भी मिल गए हैं कुछ नए ग़म
दिल को समझाने के बहाने हो गए हैं

Saturday 10 September 2011

शामे तनहाई

क्यूँ घबराता है दिल मुश्किल है कितनी शामे तनहाई
वही ये जानता है जिसका घर वीरान होता है

तेरे आँगन में भर जायेंगी कल खुशियाँ ज़माने की
फ़क़त ये बोल भर देना बहुत आसान होता है
सभी रोते हैं दुनियाँ में मुझे ये दो मुझे वो दो
जो मांगे दर्द ग़ैरों का वही इंसान होता है

Sunday 4 September 2011

और गीत लिखते रहे

किसी की याद जब आये तो नींद क्यूँ आये
खुली थी आँख हमें फिर भी ख्वाब दिखते रहे

छिपा के ज़ेहन में रखते हम भला कितने राज़
उठायी दिल की क़लम और गीत लिखते रहे

थी ख़ाली जेब किसे बेचते अपने आंसू
यही शहर है जहाँ रोज़ प्यार बिकते रहे

आज निकलोगे जो घर से तो साथ हो लेंगे
बस यही सोच के हम तेरे दर पे रुकते र
हे

आज तेरे रूबरू है

लिख जाती है शामें तेरा नाम दिल पर
हर सुबहा तेरे नाम ही से  होती शुरू है

जो दिखता है ज़ेहन की इन खिडकियों से
ज़र्रे ज़र्रे में दुनियां के बस तू ही तू है

क्यूँ डरता है तू  काँटों की चुभन से
जिसे बोया था तूने आज तेरे रूबरू है

मिलेगी ख़ाक में एक दिन ये दौलत
बस तेरे बाद रह जायेगी तेरी आबरू
है
 
 

Saturday 3 September 2011

एक रहनुमा मिला

एक रहनुमा मिला सफ़र आसान बन गए
कुछ बहके हुए लोग फिर इंसान बन गए

दरवाज़े पे देते थे  बड़ी   देर से  दस्तक
वो प्यार  के रिश्ते मेरा ईमान बन गए

मैं कहता रहा उनसे अपने जिगर का दर्द
वो मेरी हर एक बात पे अनजान बन गए

माँगा  जो हवाओं ने साँसों से थोड़ा  क़र्ज़
जितने बड़े थे कारवाँ  सुनसान  बन गए