Friday 16 September 2011

रूप की धूप

रूप की धूप एक दिन तो ढल जायगी
छाँव जीवन के आँगन में पल जायगी
तुम पुकारा करोगे रुको थोड़ी देर
चांदनी मुंह चुरा कर निकल जायेगी

ज़िंदगी को उसी दिन समझ पाओगे
कैसे होती है टूटे बदन में थकन
तुमने जिन पर लुटाये थे अरमां सभी
अब वही लोग देते हें कितनी चुभन

थोड़ी सी दूरियां तो बना कर रखो
कुछ सम्हल कर चलो हर नए मोड़ पर
ख़ुश्क मौसम के आने की आहट सुनो
जाना है पत्तों को डालियाँ छोड़ कर


सहरा की रेत  जैसी है ये  ज़िदगी
इस पे बचते नहीं हैं  क़दम के निशाँ
हश्र उनका भी एक दिन यही धूल है
तुम बना लो यहाँ जितने भी आशियाँ
    
 

 
 

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