Wednesday 28 September 2011

आँगन के राज़

आँगन के राज़ रखते हैं ये बंद दरीचे
गुल जानता है कैसे हैं ये बाग़ बग़ीचे

जी चाहता है
सबसे
  चले जाएँ कहीं दूर
है कुछ तो क़शिश तुझ में  जो रखती है  खींचे


इस फ़र्श की टूटी हुई ज़मीन सुधारो
क्यूँ इस पे बिछा डाले हैं ये महंगे ग़लीचे

चलती है बड़े ज़ोर से झूठों की तिजारत
सच डर के छिप गया है अब क़दमों के नीचे

हर चाल जो  चलता था   खोल कर आँखें
पल भर में फ़लक  पहुँच गया पलकें मींचे
 

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