Tuesday 31 May 2011

जो बची है थोड़ी डायरी

न पलट पुरानी ज़िन्दगी ,नहीं आएगा जो चला गया
जो बची है थोड़ी डायरी ,उसे लिख कलम संभाल के

ये समय की तेज बयार है इसे ले गयी उसे ले उड़ी
हैं अलग अलग मक़ाम पे, कभी पंछी थे एक डाल के

वो हसेंगे सब जो तू रोयेगा , ये  उनका पुराना मिज़ाज  है 
तू भी हंस ज़माने के सामने ,रख ग़मों को दिल में संभाल के
कोई ख़ार दिल में चुभेगा तो  मेरी याद तुझ को सताएगी
तुझे क्या मिला मेरे बागवां मुझे यूँ चमन से निकाल के

छाए हैं फिर बादल गहरे


छाए हैं फिर बादल  गहरे
फिर जागे हैं स्वप्न सुनहरे
यूँ ही बीत न जाए सावन
थोडा सा तो नांच मेरे मन

फिर से आज किसी का आँचल
लहराकर कर कहता है आ चल
किसकी बाट निहारे कोई
जीवन भाग रहा है प्रतिपल
चलाचली के इस मेले में
कौन यहाँ पर कब  तक ठहरे ,
छाए हैं .....

आ क्षितिज के लाल प्रष्ट पर
फिर से  लिख दें वही कहानी
बीती घड़ियों से फिर सुन लें
उन पर बीती उनकी ज़बानी
आ पलकों में  फिर से बसा लें
कुछ भूले भूले से चेहरे
छाए हैं .....

तू पूछ लहर से सागर में
क्यूँ  कर इतना इठलाती है
पल भर में उठ कर बनती है
फिर पल भर में मिट जाती है
ये अंकगणित है जीवन का
इसके नियम भी अलग अचम्भे हें
तो हमने तुमने साथ जिए
वो पल सदियों से लम्बे हैं

थोड़ी दूर बची है मंज़िल
अब तो तोड़ जगत के पहरे
जीवन भर तो सुनता आया
अब तो अपनी भी  कुछ कह रे
छाए हैं .....
 

Monday 30 May 2011

मैं पशेमां हूँ


मैं पशेमां हूँ तेरी बेवफाई पे ए दोस्त
तुने लूटा है मुझे मेरा आशनां बनके

मुझे जाना है अकेला ही चला जाऊँगा
तू मेरा साथ न दे एक बद दुआ बन के

बंधे हैं पाँव  और कांटे बिछे हैं राहों में
दिए हैं ज़ख्म मुहब्बत ने हमको गिन गिन के


डूबती शाम है और घर में एक  चराग़ नहीं
रात गुज़रेगी कड़ी सिर्फ एक सज़ा बन के
 
मैं ज़माने की निगाहों से कैसा दिखता हूँ
कोई  बताए मुझे मेरा आइना बनके 

Sunday 29 May 2011

चमकता भारत

भूखे लोगों ने बनाए हैं बुत ये पत्थर के
तुम समझते हो हुकूमत ने बदला है शहर
तो जाओ देखलो जा कर के उसकी बस्ती में
आज भी टूटा पड़ा है उस मजदूर का घर
वो जो बैठा है पहने हुए सफ़ेद लिबास
बंद सीने में उसके है सियाह रात सा दिल
सरे बाज़ार लुटी थी जो तिजोरी शाही
उसकी साजिश में यही आदमी था खुद शामिल

खड़ा है सामने एक बूढ़ा और मांगता है भीख
हुई तरक्की का अंजाम है यही सूरत
जंगे आज़ादी के लिए खून बहाने वालो
ढूंढ़ लो इसकी पसलियों में चमकता भारत
 

Thursday 26 May 2011

हम चमेली उगायेंगे इस मर्तबा


फिर से शाखों पे आया है एक बांकपन
कह दो कांटो से कम कर दें अपनी चुभन
बन के दुल्हन चमन में बहेगी  सबा
हम चमेली उगायेंगे इस मर्तबा 
  सुन पपीहे की मीठी मोहब्बत की धुन
फिर चले हैं नए प्यार के सिलसिले
कोपलों से भरीं इस तरह वादियाँ
जैसे शानों पे  गेसू  हों तेरे खुले


साहिले गंगा जैसी हैं  पलकें तेरी
इनमें रचने को  काजल  मिलेगा कहाँ

छोड़ कर के ज़मानें की सब दौलतें
जी करे है बना लें यहीं आशियाँ 
और जीने को कहते है तेरे नयन
फिर से शाखों पे आया है एक बांकपन

 
 

Wednesday 25 May 2011

तेरी याद आई

आज अनजाने आँख भर आई
ऐसा लगता है तेरी याद आई

कितने मजबूर हैं हम भी तुम भी
जी में आये सो कर नहीं पाते
सुख तो आता है बड़ी मिन्नत से
ग़म कभी पूछ कर नहीं आते

कितनी है बेरहम ये तन्हाई
ऐसा लगता है तेरी याद आई

बहुत आसां है इबादत रब की
राहे उल्फत नहीं ज़रा भी सहल
कितनी मुमताज़ों ने दम तोडा है
रोज़ जलते हैं कितने ताजमहल

सिर्फ हासिल हुई है रुसवाई
ऐसा लगता है तेरी याद आई
 

फ़ेस बुक ... चेहरों की क़िताब


जिन्हे हम भूल गए शाम के धुंधलके मैं
उन्ही लोगों से हर सुबह मिलाती ये क़िताब
मन की गीता पे जमीं धूल की कई परतें
अपनी नाज़ुक सी उंगलियों से हटाती ये क़िताब
हमने मिलजुल के उठाए जो ज़माने के सितम
उन्ही लमहात को रह रह के दिखाती ये क़िताब

लौट कर आते नहीं फिर से कभी गुज़रे दिन
मुझको इस बात का एहसास दिलाती ये क़िताब

मेरी ज़िंदगी मैं थोड़ा और रुक ..ए मेरी फ़ेस बुक

न ले तू चैन की साँसे

न  ले  तू  चैन   की  साँसे  अभी  से  ऐ   दोस्त
दिन  ही गुज़रा  है , कड़ी  शाम  अभी  बाक़ी  है

लोग   कहते  हैं    ख़त्म  हो  गया  दहशत  का  सफ़र
ये  तो  आगाज़  है  अंजाम  अभी  बाक़ी  है

तू  सोचता  है  तुझे  आज  मिल  गयी  मंजिल
तेरे  करने  को  बहुत  काम  अभी  बाक़ी  है
 

उनकी  मर्ज़ी  है  तो  करलें  मुझे  जितना  बदनाम
अहले  दुनियां  मैं  मेरा  नाम  अभी  बाक़ी  है
 

बंद मयखाना है फिर भी ये फिजा कहती है
मेरे हिस्से मैं लिखा जाम अभी बाकी है


करे एतबार किसका

 किसे दोस्त अपना समझे करे एतबार किसका
अब अपने ही हमशक्ल  से इंसान  डर गया है

जिस शख्स के मकॉ को आये हो लूटने तुम 
वो भूख से तड़प कर कल रात मर गया है

गुमनाम रास्तों पे बस मौत ही है हासिल
ज़िंदा बचा है वो जो सीधी डगर गया है

कुछ देर खेल कर के आवारा हवाओं से
हर पंछी लौट वापस अपने ही घर गया है

एक रास्ता बना ले और बहने दे दरिया को
तेरे शहर का पानी एकदम ठहर गया है
 

हम रेत पे लिखते रहे...

इतनी कड़ी है धूप पिघलने लगा है जिस्म
क्यूँ दर्द पिघल कर के समंदर नहीं बनता

देखा है सरे बज़्म तुझे बारहा मैंने
आँखों मैं तेरा अक्स क्यूँ अक्सर नहीं बनता 
हम रेत पे लिखते रहे हाथो से तेरा नाम
ख्वाबों के घरोंदों से कोई घर नहीं बनता 

गर मैं न चढ़ाता जो अक़ीदत के तुझे फूल
पत्थर ही रह जाता तू ईश्वर नहीं बनता

छुप गया वक़्त के पहलू मैं

छुप गया वक़्त के पहलू में  उम्र का सूरज
कब हुई रात ये पता न चला

अब तो उन से भी पहले से मरासिम न रहे
क्या हुई बात ये पता न चला

मेरे आँगन में हैं अब भी तेरे क़दमों के निशां
कब छुटा साथ ये पता न चला

लोग रोते हुए निकलें हैं तेरी गलियों से
क्या थे हालात ये पता न चला

क्यूँ थे मालूम सभी को बस एक तेरे सिवा
मेरे जज़्बात ये पता न चला

जश्ने दुनियाँ था या किसी की मैयत
तेरी बारात ये पता न चला
 
 
 

दाग दामन के

 बहुत आसॉ है तमाशाई बनना
कभी तू देख तमाशा बनके
दिये हैं ज़ख्म तो कभी आ के मिल
मेरे इस दर्द की दवा बनके
ओस की बूंदों से भीगी डाली
तलाशती हैं दिन वो सावन के
तुमने खुद ढूंढ ली नई राहें
क्या मिला हमको रहनुमा बनके
उन्हें तो कब का छोड़ आए हम
छुड़ाएं दाग़  कैसे दामन के

तूफान से पहले

कुछ इशारा तो समझ तू थमीं हवाओं का
एक सन्नाटा पसर जाता है तूफान से पहले

बहुत बौना ही सा निकला उसका इंसानी क़द
जिसे भगवान समझ बैठे थे पहचान से पहले

नहीं मालूम कैसा होगा मेरे कल का सफर
किस्मत के कदम बढ़ते हैं इंसान से पहले

गर जो सच है

गर जो सच है तो बस यही सच है
झूठ के दम पे जी रहे हैं हम
उनके हाथों से समझ कर के दवा
सैकड़ो ज़हर पी रहे हैं हम
गर्म तेज़ाब से जली पोशाक
टूटे धागों से सी रहे हैं हम
तुमको ऐ ज़िन्दगी समझ पाते
इतने काबिल नहीं रहे हैं हम

थोड़ी खताएँ मेरी

याद बस उनको रहीं थोड़ी खताएँ मेरी
मेरा छिप छिप के सिसकना न उन्हे याद आया

ज़िक्र होता रहा बुलंदी ए इमारत का
सारी बातों मेँ न कहीं चर्चा ए बुनियाद आया

सर पे सूरज था किसी और से मैं क्या कहता
छोड़ कर साथ गया जब मेरा अपना साया 
कि जाके बस गया लम्हा जो मेरे माज़ी मेँ
उसे मैंने लाख बुलाया वो नहीं आया
 

अंधों के शहर मेँ

मत दिल जलाओ अपना उजालों के वास्ते 
क्या होगा रोशनी  से अंधों के शहर मेँ

खा पी के सो चुके हें क़बीले  के सरपरस्त
चूल्हा मुआ जले न जले औरों के घर मेँ

जिसको सिखाने थे तुम्हे जीने के सलीक़े 
मुफ़लिस  वो मर चुका है कल पिछले पहर मेँ

जिसने सही है उम्र भर हालात की तपिश
निकलेंगी कैसे कोपलें उस सूखे शजर मेँ 
दाना जो घर में हो या ना हो उसको इससे क्या
कंबख्त भूख लगती ही है दोनों पहर मेँ
 
 
 
 

रह रह के भीगती हैं

रह रह के भीगती हैं क्यूँ बेसबब ये आँखें
लगता है तीर तेरा कुछ काम कर रहा है

रुसवाइयों के डर से रोता है कौन खुलकर
तेरी बेरुखी का मुझपे मुकम्मल असर रहा है
चर्चा ए आम है जो दीवानों की बस्ती मेँ
उस बात को कहने से ये दिल क्यूँ डर रहा है

रहना है अगर
ज़िंदा दरवाजे बंद कर लो
बस थोड़े फासले से तूफां गुज़र रहा है

जीवन कुछ महंगे कुछ सस्ते

ये उलझी उलझी सी राहें , कुछ घूमे घूमे से रस्ते
इन गलियारों में बिकते हैं,जीवन कुछ महंगे कुछ सस्ते
बहती जाती निर्मम सरिता सागर में मिल मिट जाने को
और किनारे के पत्थर सब आलिंगन को रहे तरसते
किसी किसी के घर आँगन में बस कर रह जाता है सावन
कोई दो बूंदों को तरसे ,बादल जब घनघोर बरसते

कुछ लोगों के थोड़े दुःख पर भारी भीड़ उमड़ आती है
किसी किसी के तन्हाई में मन के सारे घाव कसकते


कभी तुम गुमाँ न करना


हिल हिल के कह रही है , पतझर में सूखी डाली
बहारों में चमन वालो ,कभी तुम गुमाँ न करना

चढ़ते हुए  सूरज  पर,मत करना तुम भरोसा
देखा है हम सभी ने ,दिनो   रात का बदलना


हर जश्न के आख़िर  में आता है वक्ते रूखसत
पड़ता है तब ख़ुशी को ,फिर आंसुओं में ढलना


मत जोड़ ऐसे रिश्ते जिन्हें तोड़ना हो मुश्किल
इस महफ़िले  दुनियां से एक दिन तो है निकलना



ना   रख  मेरे होठों पे    इतनी  शराब साक़ी
आता नहीं है  मुझको गिर कर के फिर संभलना