Tuesday 31 January 2012

पूनम का चाँद

भूखा हो पेट तो पूनम का चाँद
एक रोटी की तरह दिखता है
शीशा ऐ दिल भी टूटने के बाद
सिर्फ कौड़ी के मोल बिकता है

ग़र जो बाहोश लिखूं अपना नाम
उंगलियाँ बारहा बहकती हैं
बंद आँखों से भी ये मेरा हाथ
क्यूँ तेरा नाम सही लिखता है

जब भी आया है यादों का सैलाब
रोक पाया है कहाँ साहिले दिल
भीगी पलकों से निकल कर आंसू
ख़ुश्क रुखसारों पे कब रुकता है
 

Monday 16 January 2012

न हो मायूस ऐ मेहमाँ


न हो मायूस ऐ मेहमाँ अगर है बंद दरवाज़ा
अलग दस्तूर है उल्फ़त के इस बाज़ार का

दरीचों का ये पर्दा तो बस एक झूंठा दिखावा है
पसे  पर्दा है  कोई  मुन्तज़िर  दीदार का

नये लोगों की  उम्मीदें अलग हैं तो बुरा क्या है  
तरीक़ा तुम भी  अपना लो नया इज़हार का

जिसे तुमने दिए हैं उम्र भर बस ज़ख्म और धोखे
उसी से  पूछ्तें हो  हाल तुम उस  बीमार का  

Friday 13 January 2012

रखना क़दम संभल के

मैं किस तरह बनाऊं तस्वीर अपने रब की
वो जब भी मिला मुझसे नयी सूरतें बदल के
अब रात ढल रही है मत भर पियाले साक़ी
हर रिंद को जाना है मयख़ाने से निकल के
हैं मेरे पैर घायल और लम्बे फासले हैं
जाना हैं तेरे दर तक काँटों पे मुझे चल के

उल्फ़त का ये  शहर है एक भूल भुलैंयाँ सा
उलझी हुई गलियों में रखना क़दम संभल के
 

Wednesday 11 January 2012

हर दर्द उभर आता है

हाथ रब का हो जो सर पे तो हुनर आता है
लफ़्ज़ अश्कों में डुबो दें तो असर आता है

न दिखा हमको जो  मस्ज़िद में न बुतखाने में
दिल के आईने में हर वक़्त  नज़र आता है

तेरी गली  को छू के आती है जब भीगी हवा
भूली चोटों का भी हर  दर्द उभर आता है

बट चुकी है ज़मीं  अब तो यही देखना है

कौन जाता है   उधर,  कौन इधर आता है

 

Tuesday 10 January 2012

तू सो जाए

कटी पतंग और उड़ने का शौक़
तेरी दुनियां में क्या न हो जाए

हम इबादत करें तो किसकी करें
रब जो उनकी गली में खो जाए

इस बुरे दौर में जी करता है
मैं ही जगता रहूँ तू सो जाए

किसे बुलाएं कि बचा लो हमें
कोई अपना अगर डुबो जाए

मुझे ये डर है कौन सा लमहा
मेरी पलकों को फिर भिगो जाए

इस क़दर निकले मेरे दिल से लहू
मेरे माज़ी के दाग़ धो जाए

 

ये मज़ारे मुफ़लिस है


काश ये ग़म भी हुआ करते कुछ तेरी तरह
हमसे मिलते और चले जाते अजनबी बनकर

कि तुम निगाह मिलाते रहे फ़रिश्तों से
हमने देखा तेरी महफ़िल में आदमी बनकर

रोज़ आती है तेरी याद दिल जलाने को
कभी तो तू भी आ इस घर में रोशनी बनकर

न जला तू इस पे दिये ,ये मज़ारे मुफ़लिस है
प्यार तेरा भी न रह जाए दिल्लगी बनकर

 

Sunday 8 January 2012

जेब से खंजर निकला

बड़ी है तल्ख़ ज़िंदगी की शराब
हर एक घूंट से जलता है गला

जब भी ग़ुरबत में हाथ फैलाये
हर एक जेब से खंजर निकला

क़त्ल में सारा शहर शामिल था
क्यूँ करूँ मैं फ़क़त तुमसे ही गिला
 
बहुत पहले ही से बेहोश हूँ मैं
मेरे साक़ी मुझे तू अब न पिला

न ग़र सुकूँ तो तशद्दुद ही सही
तेरी सोहबत से हमें कुछ तो मिला

ये जानते हैं कि जान जायेगी
हमें मालूम है मोहब्बत का सिला