मैं किस तरह बनाऊं तस्वीर अपने रब की
वो जब भी मिला मुझसे नयी सूरतें बदल के
अब रात ढल रही है मत भर पियाले साक़ी
हर रिंद को जाना है मयख़ाने से निकल के
हैं मेरे पैर घायल और लम्बे फासले हैं
जाना हैं तेरे दर तक काँटों पे मुझे चल के
उल्फ़त का ये शहर है एक भूल भुलैंयाँ सा
उलझी हुई गलियों में रखना क़दम संभल के
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