Thursday 27 December 2012

तू भी गले मिले


इस तरह से बिखरे मुहब्बत के सिलसिले
ले जाए  हवा जैसे  परिंदों के घोंसले

हो किस तरह तय ये कि गुनहगार कौन था
कुछ मेरी उलझनें थी कुछ तेरे फैसले

खुशियाँ तलाशने को निकले थे घर से हम 

क़िस्मत  में जो लिखे थे वो सारे  ग़म मिले

मैय्यत से गले मिल के रोये  थे बहुत लोग 
हम चाहते ही रह गए तू भी गले मिले

Tuesday 25 December 2012

ज़रा ठहर तू यहीं



ऐ जवान उम्र ज़रा ठहर तू यहीं
अभी आता हूँ बुढापे से मिलकर

मेरे जाने से रौनक भी चली जायेगी 
मरने वालों  में मुझे न शामिल कर 


लोग करते रहे समंदर की तलाश
हो गया राख  शहर जल जल कर

नहीं होता है ख़त्म जुर्म सज़ा देने से 

आओ लड़ें गुनाह से सभी मिल कर

म्योर के वे दिन ... (9)

म्योर के वे दिन ... (9)

विश्वविद्यालय में एम एस सी भौतिक शास्त्र में 1964 में प्रवेश हुआ और पहली बार इलाहाबाद आया । एकदम अनजान शहर , उम्र 15 वर्ष 4 महीने, पास में एक टीन का बक्सा, कुछ कपडे और जेब में गिने चुने पैसे । आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर थी । पिता जी चार साल पहले रिटायर हो चुके थे ।पैसे का एकमात्र सहारा नेशनल छात्रवृति ।मूर्खता तो देखिये , सोचा था कि जो संस्था प्रवेश दे रही है वह रहने का स्थान भी देगी । जब पता पड़ा कि सारे छात्रावास भर चुके हैं ,मन एक दम निराश हो गया । किसी ने बताया कि अमर नाथ झा छात्रावास यहाँ का सबसे प्रसिद्ध छात्रावास है । हिम्मत जुटा कर सायंकाल उसके अधीक्षक महोदय डा मुश्रान से मिलने गया । पहले तो उन्होंने सीधे सीधे मना कर दिया , परन्तु जब मैंने अपनी मार्क शीट दिखाई , 82% अंक थे तब थोडा सोचने के बाद बोले कि कल आकर फ़ार्म भरदो और फीस जमा कर दो । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा ।रात प्रयाग स्टेशन पर बिताई । दूसरे दिन आ कर औपचारिकताएं पूरी कीं और एक डबल सीटेड कमरा आवंटित किया गया । कामन हाल के सामने सज्जन खड़े थे , उनसे कमरे का स्थान पूछा था कि मुझसे सीधे ही शुरू हो गए " अबे साले नए नए आए लगते हो , अपने बाप के बाप से पता पूछ रहे हो , विश नहीं करना जानते ?"। मेरी ऊपर से नीचें तक सारी चूलें हिल गयीं । इतनी देर में उनके कुछ और साथी एकत्रित हो गए । " चलो पचास फर्शी लगाओ "। मेरी कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने कहा " क्या करना है सर "। बोले " किस जंगल से आये हो , शकल से एक दम डी सी लगते हो "। फिर उन्होंने बताया कि फर्शी कैसे लगाई जाती है और मुझसे पूरी पचास फर्शियां लगवाई गयीं । भाग्यवश एक चपरासी ने हस्तक्षेप किया " भैय्या , जाइ दे , नवा नवा है , सब धीमे धीमे सीख जैहें "। मुझे छुटकारा मिला , कमरे में जाकर चैन की सांस ली ।
अभी मेरे दुखों का अंत नहीं हुआ था । रात में खिड़की पर किसी ने दस्तक दी , मैंने जैसे ही खिड़की खोली , एक ज़ोर की आवाज़ के साथ ढेर सारा पानी अन्दर आया । थोड़ी देर में समझ में आया , कि सुराही फोडी गयी थी । सारा बिस्तर भीग गया था , बिस्तर लपेट कर अलग करना पड़ा और किसी तरह राम राम कर के रात बीती । सितम्बर माह में फ्रेशर फंक्शन समाप्त होने तक गाहे बगाहे यह सिलसिला चलता रहा । सभी सीनियर्स को आदाब करना , उनका नाम तथा क्लास जानना आवश्यक होता था । आदाब करने की आदत तो ऐसी पड़ गयी थी , किसी भी अनजान चेहरे को देखते हो , हाथ खुद बा खुद उठ जाता था , चाहे वो कोई भी ही ।
थोड़े समय बाद सीनियर्स मित्रवत हो गए ।सभी तरह की मदद उनसे मिल जाती थी । बाद में इसी छात्रावास में 1968 में जनरल सेक्रेटरी , 1970 में सोशल सेक्रेटरी चुना गया । 1980 से 1984 तक अधीक्षक भी रहा और आज तक उसी संस्था से जुड़ा हुआ हूँ ।

म्योर के वे दिन .....(8)

म्योर के वे दिन .....(8)

सन 1964 में डा अमरनाथ झा छात्रावास में एम एस सी भौतिक शास्त्र के विद्यार्थी के रूप में प्रवेश मिला । मार्च 1965 में परीक्षाएं प्रारभ हुईं । तैय्यारी अच्छी थी । पहली परीक्षा की रात को अच्छी तरह विषय को दोहरा कर रात्रि में 9 बजे ही बिस्तर पर लेट गया । सोचा यह था कि ठीक से लम्बी नींद लूँगा तो सुबह मस्तिष्क तरो ताज़ा रहेगा । परन्तु ऊपर वाले की मर्जी कुछ और थी । गलती यह हो गयी कि रात को खाने के स्थान पर एक दो संतरे ही खाए थे और पिछले एक दो दिन से रात को ऐसे ही चल रहा था । अब नींद आये भी तो कैसे । थोड़ी देर विषय को लेटे लेटे ही दोहराता रहा । देखते देखते रात्रि के 12 बज गए । अब चिंता सताने लगी । उठ कर कोरिडोर में आठ दस लगभग दौड़ने के बराबर चक्कर लगाए , यह सोच कर कि थकान से नीद आ जायेगी । परन्तु नींद एक दम गायब हो चुकी थी । 5 बजने वाले थे , आसमान में थोड़ी रोशनी होने लगी थी । 7 बजे से परीक्षा थी । अब उठ कर तैयार होने के अलावा कोई चारा नहीं था । सारी रात जागते जागते निकली थी । सब कुछ धुआं धुआं सा लग रहा था । परीक्षा के लिए जाते समय विषय के बारे में नहीं सोच पा रहा था , चिंता यह लगी थी की अब फेल हो जाऊँगा तो पिता जी इलाहाबाद पढने नहीं भेजेंगे , कही अलीगढ या आगरा में पढ़ाएंगे । बुजुर्गों का आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा हुई कि पर्चा मिलते ही स्मरण शक्ति साथ दे गयी , प्रश्न हल होते गए और परचा ख़ासा ठीक ठाक हो गया । छात्रावास लौटा तो अपनी ग़लती जान चुका था । सीधे मेस में जा कर भर पेट खान खाया और उसके बाद पूरे तीन घंटे सोया । बाद के पर्चों की रात को खाना न खाने की ग़लती को नहीं दोहराया । पहले पर्चे में 100 में से 85 तथा योग में 80 प्रतिशत अंक आये । थ्योरी के यह अंक कई वर्षों तक रिकार्ड की तरह रहे ।

मेरी सभी विद्यार्थियों को सलाह है कि इम्तिहान की रात को ज्यादा भोजन तो न करें , परन्तु खाली पेट न रहें वरना मेरी तरह मुसीबत में फस सकते हैं ।

Sunday 23 December 2012

शर्मसार हूँ मैं

ज़ख्म जिसने भी दिए हों तुझको
देख कर उनको शर्मसार हूँ मैं

सर पे इलज़ाम नहीं है फिर भी
ऐसा लगता है गुनहगार हूँ मैं

तेरे बदन पे हुए हैं जितने सितम
हम वतन उनका राज़दार हूँ मैं

मैं हूँ पत्थर मेरी सूरत को बदल
संगतराशी का तलबगार हूँ मैं



ये बात और है कोई कहे न कहे
इस तबाही का  ज़िम्मेदार हूँ मैं

Thursday 20 December 2012

कहानी चली गयी


जब प्यार किया था तो नादान बहुत थे
अब जान गए हैं तो जवानी चली गयी

जब  आये थे बादल तो  मयखाना बंद था
पियाले भरे तो शाम सुहानी चली गयी

सपनों की झूठीं बातें सुनानें लगे हैं लोग
वो तेरे मेरे सच की कहानी चली गयी

हार गया मिट्टी  से एक शाह का मज़ार 
मील के पत्थर की निशानी चली गयी  

म्योर के वे दिन .... (7)

म्योर के वे दिन .... (7)

रहमत के वालिद पी सी एस अफसर थे और लखनऊ में पोस्टेड थे । दिवाली की छुट्टियां हुईं । छात्रावास खाली होने लगा ।मेरे साथ 3-4 मित्र मिलकर रहमत को प्रयाग स्टेशन छोड़ने गए । जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर रूकी , सभी ने बिना किसी पूर्व तोजना के तय किया कि चलो लखनऊ चलते हैं । आज कहीं जाना हो तो सौ तैय्यारियाँ होतीं है । मगर जवानी का ज़माना भी क्या होता है । न कपड़े , न बैग, न पैसे , टिकट लेने का तो समय ही कहाँ था , पर चल पड़े तो चल पड़े । । करीब चार घंटे के बाद जब लखनऊ आने लगा तो चिंता लगी कि टिकट तो लिया ही नहीं था , स्टेशन पर उतर कर क्या करेंगे । एक रेलवे क्रासिंग के पास गाड़ी धीमी हुई तो रहमत ने बताया कि उसका घर इस स्थान से पास पड़ेगा , सब के सब एक एक कर के चलती गाढ़ी से सावधानी से उतरने लगे । हड़बड़ी में मेरी बुद्धिठीक से काम नहीं की , भौतिकी के सारे नियम भूल कर गाढ़ी की चाल के विपरीत दिशा में कूदा , पटरी के बगल में पड़े पत्थरों पर चारो खाने चित्त गिरा , पहियों से मुश्किल से एक फीट की दूरी पर । मुझे इस तरह गिरते देख कर क्रासिंग पर खड़े लोगों के मुंह से चीख निकल गयी । मैं उठा तो एक खरोंच भी नहीं आयी थी । ऊपर वाला बचाना चाहे तो आदमी की हर गलती माफ़ है ।


    रहमत के घर पहुंचे । उसके वालिद एक दम शाही तबियत के इंसान थे । पूरा ड्राइंग रूम खाली कर के हम लोगों के हवाले कर दिया गया , और हम लोगों की अच्छी खातिर हुई । एक बहुत बड़े तवे पर बीस अण्डों का आमलेट तो पहली बार बनते देखा । उस दौरान एक बहुत उल्लेखनीय बात हुई , बड़ी दीवाली के दिन रहमत के पिता जी ने हमारी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ दिये भी अपने घर पर जलाए । बाद में वे इलाहाबाद में कमिश्नर भी नियुक्त हुए । जब तक वे जिंदा रहे , मैं जब भी उनसे मिलता था तो उनके पैर छूता था ....अब उतने बड़े दिल वाले लोग बड़ी मुश्किल से मिलते है ।

Wednesday 19 December 2012

मेरा चर्चा बहुत हुआ


कोई नहीं  हुआ जब तड़प रही थी मैं
मर गयी मैं त़ो  मेरा चर्चा बहुत हुआ

तब ये हुआ फिर ये, होती रही बहस
नंगे  मेरे बदन का तमाशा बहुत हुआ

मुज़रिम को सजा हो, ये बातें बहुत हुईं
ज़ुर्म होता रहा यूँ ही , ऐसा बहुत हुआ

मुफ्त में मिल गया  सियासत को  मुद्दा 
शान ऐ  हुक़ूमत  में  इज़ाफा बहुत हुआ

Monday 17 December 2012

म्योर के वे दिन ...(6)



म्योर के वे दिन ...(6)

सन 1972 , 8 फरवरी । छात्रावास में विद्यार्थी की तरह अंतिम वर्ष समझिये ।मेरी उम्र लगभग 23 वर्ष रही होगी ।पेलेस थेटर सुबह के लिए बुक किया गया । संगीत का एक कार्यक्रम "एम सी प्रेजेंट्स गुंजन " मेरे ही द्वारा आयोजित किया गया । वाद्य यन्त्र बजाने वाले सभी आकाश वाणी के कलाकार थे । पुरुष गायकों में श्री ज्ञानेश्वर तिवारी थे , ऐ एन झा से जुड़े हुए , पार्श्व गायक स्व. मुकेश जी के गाने बहुत अच्छे गाते थे । लड़कियों में तीन गुलवाडी बहनें  कु निर्मला गुलवाडी, कु शोभना गुलवाडी, कु शैला गुलवाडी  तथा कु श्यामली चटर्जी । सभी  बहुत सुरीली थीं । मैंने स्वयं उस कार्यक्रम का निर्देशन किया था तथा साथ में मैन्डोलिन भी बजाया था । आकाश वाणी के जाने माने कलाकार श्री गौरी शंकर जी क्लेरिनेट पर थे ।

हाल खचाखच भरा हुआ था । ग़लती यह हो गयी कि एक सज्जन ने हमें बताया कि वे पार्श्व गायिका हेम लता के कार्यक्रम का संचालन बखूबी कर चुके हैं , और हमारा दुर्भाग्य था कि हमने उन्हें बिना सुने ही संचालन का कार्य भार सौंप दिया । कार्य क्रम के प्रारम्भ में ही संचालक महोदय ने हमारे मुक़द्दर पर पानी फेरा । घोषणा की कि " कार्यक्रम प्रारभ होने वाला है , आप लोग अपने स्थानों पर बेठ जाइये "। उनका 'बैठ' को 'बेठ ' बोलना था कि हाल में 'हा हा ही ही' का शोर हो गया । मुझे पसीना आ गया । पर्दा खोला गया और मैंने डरते डरते " घर आया मेरा परदेसी " का प्रारंभिक मेंडोलिन का टुकड़ा बजाया , मेरा सौभाग्य था उसके बजते ही हाल में ज़बरदस्त ताली पिटी और हम लोगों का मनोबल बढ़ गया । उसके बाद ऐंकर महोदय को एक शब्द नहीं बोलने दिया गया । कार्यक्रम बहुत सफल रहा । तकनीक के लिहाज़ से समय से दस वर्ष आगे का कार्य क्रम था , कलाकारों पर चलते समय लगातार स्पॉट लाइट बनी रहती थी ।उल्लेखनीय गानों में " घर आया मेरा परदेसी ...", "मिलो न तुम तो हम घबराएं ....", "रैना बीती जाय .." , "पुकारो , मुझे तुम पुकारो ....", इत्यादि थे । सफलता में छात्रावास के मित्रों का बहुत सहयोग था ।

आज कल ज्ञानेश्वर तिवारी इंडियन आयल कोर्पोरेशन में डिवीजनल जनरल मेनेजर के पद पर आसीन हैं । गुलवाडी बहनें दूरदर्शन पर गातीं हैं , सबसे छोटी बहन ने अच्छे संगीत निर्देशकों के साथ भी कुछ रिकॉर्डिंग्स की हैं । ध्यान रहे कि किसी को भी संचालन का भार देने से पहले ठीक से जांच परख लीजिये , पता नहीं कौन कब आपकी नैया डुबो दे ।


म्योर के वे दिन ......( 4 )



सन 1971 की गर्मियां की बात है जब मैं रिसर्च कर रहा था । मैस तो अक्सर बंद ही रहता था । हास्टल के कमरा नम्बर 74 में बैठा हुआ था , पेट में चूहे दौड़ रहे थे । जेब में बहुत पैसे भी नहीं थे और ऊपर से चिलचिलाती हुई धूप । बाहर जाकर कुछ खाने के लिए निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था । तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया , खोल कर देखा तो हमारे बड़े भाई साहिब के दूर दराज़ के साले श्र

ी रमेश जी खड़े थे । राय बरेली में पी डब्ल्यू डी में जूनियर इंजीनियर थे । बातचीत के दौरान बताया कि हाई कोर्ट में किसी काम के सिलसिले में आये हैं । थोड़ी देर में बोले कि " मैं ज़रा खाना खाऊंगा , साथ में लाया हूँ "। कह कर उन्होंने बैग से टिफिन निकाला । टिफिन के खुलते ही शुद्ध घी के परांठों की खुशबू नाक से सीधे कलेजे तक उतर गयी ।पश्चिम के रहने वाले थे , परांठों की संख्या 12 से कम न रही होगी । औपचारिकतावश मुझसे पूछा " आप भी एक आधा लीजिये "। मेरे पास ना नुकुर करने लायक लज्जा नहीं बची थी , एक के बाद एक चार परांठे खा गया । जब मैंने कहा कि " आप थोडा आराम कर लीजिये ", तो तुरंत बोले " अरे मुझे तो ऐसे ही देर हो गयी है , वकील से मिलना है , चलूँगा "। कह कर नमस्कार किया और बैग उठाकर चलते बने । उनके जाने के बाद सोचने लगा कि सच ही कहा है कि 'दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम' । अवश्य ही उन चार पराठों पर " महेश चन्द्र शर्मा " लिखा होगा , तभी तो वे सज्जन तपती दोपहरी में इतनी दूर से आये और उन शुद्ध घी के पराठों को खिलाने के बाद ज़रा देर भी बिना रुके चले गए ।

जब ईश्वर को किसी का पेट भरना होता तो ऐसे ही देता है और जब भूखा रखना होता है तो बादशाहों की थाली में से उठा लेता है ।

Sunday 16 December 2012

म्योर के वे दिन ......(5)


म्योर के वे दिन ......(5)

लाइब्रेरी वाला भूत :

जिस समय की बात मैं कर रहा हूँ उस समय इलाहाबाद में तो दिन भी बहुत शांत हुआ करते थे , फिर रातों का तो क्या कहना । कला संकाय में तो रात को ज़बरदस्त खामोशी छा जाती थी । अन्दर घूमने का मन करता था पर चौकीदार जाने नहीं देते थे, बहुत रोक टोक करते थे । एक रात इरादा बना कि अन्दर घूमना ज़रूर है । करीब छह लोग थे हम | लक्कू बौस , रहमत , मैं तथा तीन और । प्लान बन गया ,, सफ़ेद चादरें इकठ्ठी की गयीं । एक घड़े का मुंह तोड़ कर चौड़ा किया गया , दो आँखों के जैसे छेद किये गए , उन पर लाल पन्नी चिपकाई गयी । हम लोगों ने सफ़ेद चादरों से बदन को पूरी तरह ढक लिया , सबसे आगे लक्कू बौस ने घड़ा मुह पर पहन लिया और अन्दर से टार्च जला ली । रात के लगभग 1 बजे कला संकाय में प्रवेश किया । अजीब तिलस्मी दृश्य था , सबसे आगे लाल आँखों वाले लक्कू बौस और पीछे पांच सफ़ेद साए ,बिना आवाज़ किये पीछे चले जा रहें थे । एक चौकीदार ने पहेले तो ज़ोर से कहा " कौन है ?", पर माहौल देख कर एक दम सन्नाटा खींच गया , और छिटक कर 20 गज की दूरी बना ली , आगे दूसरा मिला उसका भी लगभग वही हाल हुआ । एक कुछ ज्यादा घबड़ा गया , ज़ोर से चिल्लाया " अरे कड़ेदीन ,, मुखिया ...भरोसे ...जल्दी आवा हो , ऊ लायबरेली (Library) वाला भूत आवा है , पूरा खानदान लय के "। अब कई इकट्ठे हो गए , परन्तु किसी की भी हिम्मत हमारे पास आने की नहीं हो रही थी । ठीक से दूरी बना कर हमारा पीछा करने लगे । लक्कू बौस अचानक 90 डिग्री के कोण पर मुड़ जाते , और वे लोग सहम जाते । तभी दुर्भाग्य से रहमत का पैर एक पत्थर से टकरा गया , उसे लगा कि मैंने टंगड़ी मारी है , तुरंत बोल पड़ा " अबे एम सी , बदमाशी मत करो "। चौकीदारों के लिए ये बहुत बड़ा इशारा था , एक चिल्ला कर बोला " हम पहले ही समझ गए रहिन , ई सब सार लरिका लोग हैं , मारा सारन का .."। सुनते ही हम सभी लोगों में जंगली हिरन वाली ऊर्जा आ गयी । मैं ज़िंदगी में इससे तेज कभी नहीं दौड़ा , पलक झपकते ही मोती लाल नेहरु रोड  वाली चहार दीवारी पार कर गया । रहमत हडबडी में उस पार ऐसा टपका जैसे पेड़ से पका आम , अलबत्ता आम की तरह फटा नहीं । हाँ हफ्ता भर लंगड़ा कर ज़रूर चला ।

इसमें लक्कू और रहमत काल्पनिक नाम हैं , पर पात्र असली हैं । लक्कू बाद में आई पी एस तथा रहमत प्रॉपर आई ए एस बने । अभी भी रहमत मियाँ का फोन आता है " अबे एम सी यार उस दिन टांग मार कर बहुत बुरा फसा दिया था तुमने "। मैं कह कह कर थक चुका कि यार उस दिन लात मैंने नहीं मुक़द्दर ने मारी थी ।

ग़मों से बोझिल है



न डरा  मुझको गर्दिशे दौरां
मेरी बरबादी मेरी मंज़िल है

जो नहीं है उसी को ढूँढता है
यही तो आदमी की मुश्किल है

मैं मर चुका हूँ ज़माने  पहले 
ढूँढता मुझको अब भी क़ातिल  है

तेरा क़रम है कि हंस लेता हूँ
मेरा बदन ग़मों से बोझिल है

जिनको जाना है तेरी  महफ़िल से
मेरा भी नाम उनमें शामिल है


हैं  तेरे साथ चाहने वाले बहुत
एक मेरे पास अकेला दिल है  





Saturday 15 December 2012

म्योर के वे दिन ........(3)


1970 के दशक की बात है । उन दिनों प्रयाग संगीत समिति में अक्सर ही शाश्त्रीय संगीत के बड़े नामी कलाकार आते रहते थे । एक दिन कुछ मित्रों के साथ इच्छा जगी कि चल के सुना जाय । छात्रावासीय जीवन में जेब की पैसे से दुश्मनी बनी रहती है । इच्छा प्रबल थी , बिना कुछ सोचे समझे चल दिए । समिति पहुच कर समस्या बनी कि अन्दर कैसे जाया जाय । अल्फ्रेड पार्क के अन्दर की ओर से संगीत समिति के

पीछे की तरफ गए । सौभाग्य से चहार दीवारी लगभग दस फीट ऊंची थी । "गोविंदा आला " युक्ति से अन्दर कूद लगाईं । जैसे ही अंतिम साथी कूदा कि चौकीदार की नज़र हम पर पड़ गयी । आनन फानन में "पकड़ो पकड़ो " का नारा लगा और हम लोग धर लिए गए । एक चैनल गेट के अन्दर बंद कर दिया गया । एक कटरा के सज्जन दिखाई दिए तो मैंने गुहार लगाई " भाई साहब , आप तो हमें जानते है , हम लोग चोर उचक्के नहीं हैं "। उन्होंने बड़ी बेरुखी से उत्तर दिया " हाँ हाँ जानते हैं , ऐ एन झा में रहते हो , रिसर्च करते हो ,अब जो किया है सो भुगतो "। प्रबंधकों को सूचना दी गयी । काटो तो खून नहीं । अचानक थोड़ी देर में एक सज्जन आये , बड़ा सुन्दर व्यक्तित्व था , ताला खुलवा कर बोले " आप लोग आइये मेरे साथ "। लगा कि अब पुलिस के सुपुर्द किये जायेंगे , इज्ज़त की वाट लगने वाली है । परन्तु भाग्य पल्टा खा चुका था , उन्होंने हमें हाल में अन्दर ले जाकर सबसे आगे से तीसरी पंक्ति में बिठा दिया और कहा कि "बैठिये और सुनिए "। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । मैं इस घटना को कभी भूल नहीं पाया । संगीत से जुड़े लोग संवेदन शील तो होते ही हैं , मुझे लगा कि उस सहृदय मनुष्य ने सोचा होगा कि शाश्त्रीय संगीत, जिसको सच्चे मायने में बहुत ही कम लोग समझते हैं , उसके लिए यदि कोई दस फीट की ऊंची दीवार से छलांग लगा सकता है तो उसका सुनने का हक़ तो बनता है ।
"माना कि तेरे दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
मेरा शौक़ देख मेरा इंतज़ार देख "

म्योर के वे दिन ........(2)


विद्यार्थी जीवन में , और खासतौर से छात्रावास में , कौन एक दूसरे को "आप आप " करके बोलता है । कुछ अच्छे बच्चों को छोड़कर सभी " और बेटा ....." कर के ही बोलते हैं । गालियों पर अनवरत शोध कार्य चलता ही रहता है । मैंने उस समय कुछ पंक्तियाँ लिखीं थी जिसमे विशुद्ध गालियाँ थीं और उसकी धुन "तोडी " थाट के स्वरों को ले कर की थी । जब जी में आये मस्ती में गाता रहता था और साथी भी आन

ंद पूर्वक सुना करते थे । नवागंतुकों का उत्सव होने वाला था और उसमें कुछ गाने वाले या वाद्य यन्त्र बजाने वालों के चयन की प्रक्रिया चल रही थी । अधीक्षक भी बैठे थे , उन्होंने मुझसे कहा " अरे शर्मा इन बच्चों को कुछ बांसुरी सुनाओ , इन्हें प्रेरणा मिलेगी "। कमरे से बांसुरी मंगाई गयी , मुझे और कुछ न सूझा ,वही (गालियों वाली ) धुन बांसुरी पर सुनाने लगा । अब बांसुरी से शब्द तो निकलते नहीं है , कि मैं पकड़ा जाता । अधीक्षक महोदय संगीत समझते भी थे , उधर वे " वाह वाह" किये जा रहे थे , और लड़के तालियों से ताल तो दे रहे थे परन्तु अपनी हंसी नहीं रोक पा रहे थे । अधीक्षक पशोपेश में थे कि इस धुन में हंसने लायक क्या है । खैर , अंत में खूब ताली पिटी । सौभाग्य से अभी भी विश्वविद्यालय से सेवा निवृत गुरुदेव जीवित है , ईश्वर उन्हें लम्बी आयु दे । वैसे आज तक न तो उन्हें किसी ने बताया और न वे कभी नहीं जान सके कि मैं बांसुरी पर क्या बजा रहा था ।...

म्योर के वे दिन ......(1)


रात के लगभग 12 बजे के आसपास प्रयाग स्टेशन चाय पीने जाते थे , हम कोई चार पांच मित्र । मेरी हाथ में सीधी बांसुरी रहती थी । लौटते समय आधे सोये आधे जगे सरोजिनी नायडू छात्रावास के सामने कभी कभी रुक कर ऍफ़ सी आई की चहार दीवारी पर बैठ जाते थे । उस समय का प्रचलित गाना " मेघा छाये आधी रात , बैरन बन गयी निदिया ", मैं अक्सर बांसुरी पर बजाता था । लड़कियों को अंदाज़ नहीं होता था ,

मगर हम लोग साफ़ साफ़ देख पाते थे , छत पर धीमे धीमे झुक कर आते हुए सायों को । दो चार गाने बजाने के बाद उनको अलविदा कह कर हम लोग हास्टल लौट आते थे । कोई भी भद्दी अभिव्यक्ति नहीं होती थी हम लोगों की और से । वे सभी मित्र बाद में आई ए अस बने और अब लगभग सभी सेवा निवृत हो चुके हैं । वे दिन अब कभी नहीं लौटेंगे ....पर यादें तो बिना बुलाये आतीं हैं , उन पर किसी का ज़ोर नहीं चलता ।

मैं आगे भी इन यादों को सिलसिला ज़ारी रखूँगा । एक बात का विश्वास आप लोगों को दिलाना चाहूँगा , कि जो भी लिखूंगा उसमें न तो कुछ असत्य होगा ...न अतिशयोक्ति ।..

Thursday 13 December 2012

निभाना मुश्किल होगा


नंगे पैरों से न चलिए इन सूखे पत्तों पे
लगी जो आग बुझाना मुश्किल होगा

अभी तो दिन है कांटे भी देख सकते हो
ढली जो शाम तो आना मुश्किल होगा


किसी की ज़ुल्फ़  के साए में बसेरा कर लो
आज  घर लौट के जाना मुश्किल होगा

निभा ही लेते है लोग ज़माने के रिश्ते
ये मोहब्बत है निभाना मुश्किल होगा

Tuesday 11 December 2012

शोर होता है


न रो ऐ आँख ,सो गया है  दिल
अश्क़ गिरते  हैं शोर होता है

वो तेरा गाँव में भीगा आँचल
मेरा दामन यहाँ  भिगोता है

जो भी आया ज़रूर जाएगा
ज़माना रोये तो क्या होता है

उम्र भर उलझनें जगाती हैं उसे
थक के फिर लम्बी नींद सोता है 

Thursday 6 December 2012

पहचान बहुत थी

एक शख्स चाहता था माहौल बदलना
दुनियाँ जो साथ में थी नादान बहुत थी

पर्वत पे दूरियों का अंदाज़ ग़लत था
और भीड़ रास्तों से अनजान बहुत थी

वो कह रहा था सच ये बात भी सच है
उसकी दलील बेबसों बेजान बहुत थी

अब कुछ तो सब्र कीजिये इतना न रोइए
मेरी भी मरने वाले से पहचान बहुत थी

Wednesday 5 December 2012

मैंने ज़िंदगी समझा

उम्र भर बेवफ़ाई करता रहा
जिसको मैंने ज़िंदगी समझा

घर मेरा जल रहा था उसने
तमाशा ऐ आतिशी समझा

रोने को मुंह ढका था मैंने
वो इज़हारे खुशी समझा

साग़र पे बरसना फ़िज़ूल है

ये बादल क्यूँ नहीं समझा

उसे मानते थे अहले समझ
सच में जो कुछ नहीं समझा



Tuesday 4 December 2012

तूफ़ान उठा रक्खा है



दहकते चेहरे पे लिपटा भीगा आँचल जैसे
किसी बादल ने बिजली को छिपा रक्खा है 



तेरे इनकार के डर से जिसे  मैं दे न सका
ख़त वो इज़हार का कब  से  लिखा रक्खा है

 न टूट जाए कहीं तेरे हसीं रिश्तों का घर
मैंने एक  आग को सीने में दबा रक्खा है
  
तुझे चाहूँ तो ज़माने का क्या बिगड़ता है
दुनिया  ने मुफ्त में तूफ़ान उठा रक्खा है

Monday 3 December 2012

मेरे ज़ख्म कहाँ है


मिला है दर्द जहां से वो मेरे अपने थे
गैरों को क्या पता था  मेरे ज़ख्म कहाँ है


कल रात इस बस्ती में जलाए गए थे लोग
जो खाली दिख रहे हैं वो सब उनके मकां हैं 



नुमाइश नहीं लगी है सितारों की बदन पे
मेरे सीने पे चमकते तेरे तीरों के निशां हैं  



महफ़िल में मेरा हँसना एक मेरी बेबसी है
रोने के कितने हादिसे इस  दिल में निहां हैं  



Sunday 2 December 2012

और तेरा तीर है


हर बशर की बस यही तक़दीर है
अपने  घर में कल टंगी तस्वीर है



वक़्त कहता है चलो चलते रहो
और पैरों में बंधी ज़ंजीर है



मुख़्तसर है मेरे ग़म की दास्ताँ
ये जिगर मेरा और तेरा तीर है
 
दफ़्न कल मुमताज़ हुई थी जहां
ताज महल  हो गया तामीर है

क्यूँ जगाते हो उसे सोने भी दो
ज़िंदगी से थक गया राहगीर है 




Saturday 1 December 2012

कौन लिखता है

बंद आखों में नज़र आते हैं कितने चेहरे
आँख खुलती है कोई भी नहीं दिखता है

ख्वाब 
दुनिया है या ख्वाब में है  ये दुनिया
सब हक़ीक़त है तो ख्वाब में क्या दिखता है

हादिसे होते हैं यहाँ पहले से लिखी होनी से
होनी ये किस तरह होनी है कौन लिखता है

कोई तो रिश्ता है इस आंसू का तेरे चेहरे से

निकल के आँख से रुखसारों पे क्यूँ रुकता है