Saturday 15 December 2012

म्योर के वे दिन ........(2)


विद्यार्थी जीवन में , और खासतौर से छात्रावास में , कौन एक दूसरे को "आप आप " करके बोलता है । कुछ अच्छे बच्चों को छोड़कर सभी " और बेटा ....." कर के ही बोलते हैं । गालियों पर अनवरत शोध कार्य चलता ही रहता है । मैंने उस समय कुछ पंक्तियाँ लिखीं थी जिसमे विशुद्ध गालियाँ थीं और उसकी धुन "तोडी " थाट के स्वरों को ले कर की थी । जब जी में आये मस्ती में गाता रहता था और साथी भी आन

ंद पूर्वक सुना करते थे । नवागंतुकों का उत्सव होने वाला था और उसमें कुछ गाने वाले या वाद्य यन्त्र बजाने वालों के चयन की प्रक्रिया चल रही थी । अधीक्षक भी बैठे थे , उन्होंने मुझसे कहा " अरे शर्मा इन बच्चों को कुछ बांसुरी सुनाओ , इन्हें प्रेरणा मिलेगी "। कमरे से बांसुरी मंगाई गयी , मुझे और कुछ न सूझा ,वही (गालियों वाली ) धुन बांसुरी पर सुनाने लगा । अब बांसुरी से शब्द तो निकलते नहीं है , कि मैं पकड़ा जाता । अधीक्षक महोदय संगीत समझते भी थे , उधर वे " वाह वाह" किये जा रहे थे , और लड़के तालियों से ताल तो दे रहे थे परन्तु अपनी हंसी नहीं रोक पा रहे थे । अधीक्षक पशोपेश में थे कि इस धुन में हंसने लायक क्या है । खैर , अंत में खूब ताली पिटी । सौभाग्य से अभी भी विश्वविद्यालय से सेवा निवृत गुरुदेव जीवित है , ईश्वर उन्हें लम्बी आयु दे । वैसे आज तक न तो उन्हें किसी ने बताया और न वे कभी नहीं जान सके कि मैं बांसुरी पर क्या बजा रहा था ।...

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