Monday 23 December 2013

मैं विश्वविद्यालय को वर्गों में नहीं आंकता

सभी विद्यार्थियों , अध्यापक तथा समाज के और लोगों के विचार सुनने के बाद मैं अपना आकलन बताना चाहूंगा । मैं ग़लत भी हो सकता हूँ ।
" मैं विश्वविद्यालय को वर्गों में नहीं आंकता । विद्यार्थी अच्छे भी होते हैं , बुरे भी होते हैं ,अध्यापक अच्छे भी होते हैं , बुरे भी होते हैं। जे के इंस्टिट्यूट में जो हुआ वह बहुत दुखद है । विश्वविद्यालय प्रशासन ने विद्यार्थियों के प्रदर्शन के बावजूद इसकी गभीरता को नहीं समझा या समझ कर नहीं समझा । उपकुलपति महोदय , जिन्होंने अपनी वीर गाथाएं सुना सुना कर हमारे कान पका दिए , अध्यापक और विद्यार्थी को अछूत समझते हैं । अध्यापक संघ की मीटिंग में आना उन्हें गवारा नहीं । दस विद्यार्थियों से वार्तालाप नहीं कर सकते हैं । एक अध्यापक जो विज्ञान के नाम पर कोढ़ है पर जिसका यू जी सी और डी एस टी में ज़ोर है उसकी परिस्थिति सम्भालने के लिए वे बिना आमंत्रण के भी विभाग में आ सकते हैं । ईश्वर जाने इस विश्वविद्यालय का क्या होगा और यह वक्तव्य देने के बाद मेरे साथ क्या होगा ,नहीं मालूम ।

दुष्यंत की पंक्तियाँ याद आतीं हैं
" हम बहुत कुछ सोचतें हैं पर कभी कहते नहीं"

Sunday 22 December 2013

विकलांग केंद्र

मैं सन १९७१ से डा अमर नाथ झा छात्रावास के सांस्कृतिक समारोह के लिए कव्वालियों के लिए संगीत रचना करता आ रहा हूँ । मुझे यह विधा इस लिए पसंद है कि इसमें ग़ज़ल , नज़्म , कविता और लोकगीत किसी का भी सहारा ले कर आप अपनी बात कह सकते हैं । कई वर्ष पहले उदीशा की कव्वाली प्रतियोगिता में हम लोगों को पारितोषिक धन राशि के रूप में मिला , संभवतया ५०० रु । १५ वर्ष पहले यह धन राशि काफी होती थी । वह उदीशा विकलांगो को समर्पित की गयी थी । बात यह उठी कि इस पैसे क्या किया जाय , किसी होटल में चल के खाना खाया जाय... । पर मेरे कहने पर कि यह धन राशि किसी अच्छे कार्य में लगाईं जाय , हम लोग भारद्वाज आश्रम पर गए और यह पैसा वहाँ के विकलांग केंद्र के संचालक महोदय को दिया । कोई बंगाली बुज़ुर्ग थे , मुझे नाम याद नहीं आ रहा है । उन्होंने सभी विकलांग बच्चों को एकत्रित किया और "हम होंगे कामयाब " गाना गवाया । मेरे आंसू रोके नहीं रुक रहे थे और सोच रहा था कि ईश्वर तू मुझे भी ऐसा ही बना देता तो मैं तेरा क्या बिगाड़ लेता ।

Wednesday 18 December 2013

यहाँ बंजर ज़मीनें हैं....

न उगना  भूल  से भी ऐ गुलो  तुम इस गुलिस्तां में
यहाँ बंजर ज़मीनें हैं यहाँ बारिश नहीं होती

परिंदे भी बनाते हैं यहाँ घर आसमानों में
ज़मी पर चल सकें  पैरों में  वो ताकत  नहीं होती

झुकाये  हैं जिन्होंने सदियों तक गैरों के आगे सर 
उन्हें  सच बोलने की सच में ही आदत नहीं होती

कि जिस रब को हम सबने ही सरे बाज़ार बेचा है
दुआ मांगू उसी से अब मेरी हिम्मत नहीं होती