Thursday 30 June 2011

वो निकला है आँखे बंद किये

हर एक क़दम जो बढ़ाता था खोल कर आँखें
बड़े सफ़र पे वो निकला है आँखे बंद किये
लोग अब उसकी मजार पे जलाते हैं चराग़
जो सारी उम्र तरसता था रोशनी के लिए

आतिश परस्त तू

तेरे मेरे ज़मीर में है देख कितना फ़र्क़
मैंने उगाये फूल तूने घर जलाया है
गुलशन परस्त मैं और आतिश परस्त तू
इज़हारे शौक दोनों ही ने कर दिखाया है

मासूम सा चेहरा है शम्मा

 
क्यूँ रिंद भटकते फिरते हैं , ढूंढा करते हैं पैमाने
उसकी जो निगाहें उठतीं हैं , खुलते हैं हज़ारों मयख़ाने

तस्वीर बसी है आँखों में क्यूँ ढूंढ़ते हो तुम आईना
रखते हैं बड़ी हिफाज़त से एक तेरी अमानत दीवाने

खिलते हैं न जाने कितने गुल ,जब उसके होंठ थिरकते है
मासूम सा चेहरा है शम्मा ,या रब समझा या परवाने

अंदाज़े तरन्नुम सीखा है सागर की लहरों ने तुमसे
वो तेरे तबस्सुम की शोख़ी बादल तरसे बिजली जाने

 

Wednesday 29 June 2011

गुलों का शोख़ मौसम

जब तारे रक्स करते हैं और चंदा गीत गाता है
किसी की याद में अश्कों से दामन भीग जाता है

फ़क़त वो एक ही गुल तो इधर का रुख नहीं करता
गुलों का शोख़ मौसम तो चमन में आता जाता है 
तुम्हे कैसे  बताएं  हम   यही दस्तूरे दुनियां है
जो कुछ ज्यादा चमकता है वो मोती टूट जाता है

एक इन्सां को मनाने का हुनर हमको भी है  हासिल
उसे कैसे मनाएँ हम,    अगर रब रूठ जाता है
 

बड़ा अहसान करते हैं

तुझे बहका न दे दरिया ,रवानी मस्त मौजों की
हैं कुछ नादान  जो जीना तेरा आसान करते हैं
जिनकी आग़ोशीयाँ  करती हैं हिफ़ाज़त तेरी
ये तुझ पर संगे साहिल भी बड़ा अहसान करते हैं
चमक को देख कर उसकी , नहीं उंगली बढ़ाते हैं 
तज़ुर्बेकार  हीरे की  पहले  पहचान करते हैं
इसे मत तोडना तुम है ये गुलदस्ता अक़ीदत का
कि इतनी बदसलूकी तो फ़क़त अनजान करते हैं
  
 

Tuesday 28 June 2011

न यूँ इठला के चल नदिया

तू इन लहरों के यौवन पर , न यूँ इठला के चल नदिया
ये हम भी जानते हैं, तू बहुत है तेज और गहरी

थोडा तो मान रख उनका ,जो पत्थर हैं किनारे के
तेरे अस्तित्व के रक्षक ,तेरे व्यक्तित्व के प्रहरी

अगर वे हट गए पथ से ,बिखर जाना तेरा तय है
तलैया ताल बन कर के, कहीं रह जायगी ठहरी

ये जीवन है ,यहाँ एक पल में ही आलम बदलता है 

सुबह है , शाम भी होगी, नहीं हर लमहा  दोपहरी 

Monday 27 June 2011

बिना आवाज की बातें

ये ढलती रात सुनती है ,बिना आवाज की बातें
जो गुल छुप छुप के करते है,चमन की राज़ की बातें
पकड़ कर हाथ इस आंधी में हम किससे कहें आओ
परिंदे बन के  तुम हमसे करो परवाज़ की बातें
मुझे तो याद है हर एक लमहा राहे उल्फ़त  का
नहीं हैं याद अब उनको ,मोहब्बत की मुलाक़ातें


उधर बादल बरसते थे इधर आँखें बरसती थीं
अलग अंदाज़ से बरसीं मेरे आँगन में बरसातें

Sunday 26 June 2011

अब तो ईश्वर ही यहाँ उपजेंगे

मैंने जिस बुत को ज़िन्दगी दी थी
आज देखो वो बन गया भगवान
उसने पत्थर बना दिया है मुझे
मुझ ही से पूछ रहा है मेरी पहचान

अब तो ईश्वर ही यहाँ उपजेंगे
जो हैं जिंदा वो बनेंगे पत्थर
जिसमे इंसान कभी रहते थे
हो के रह जाएगा बुतों का शहर



 

Wednesday 22 June 2011

दुश्मनी ही सही


कोई तो नाम बना रहने दे इस रिश्ते का
न दोस्ती तो दुश्मनी ही सही

क्या हैं मजबूरियां एक ख़त तो लिख
जो न पहला तो आख़िरी ही सही

ये बुरा दौर है कुछ बन के दिखा
न फ़रिश्ता तो आदमी ही सही

यूँ न लौटा मयखाने से मुझे ख़ाली हाथ
न दे जो जाम, तिश्नगी ही सही

सीढ़ियों के सुराग़


नहीं मिलते उन सीढ़ियों के सुराग़
जो उतरतीं थी मेरे दिल में तेरे दिल से

है डूबना ही मुक़द्दर मेरे सफ़ीने का
दूर इतना चला आया हूँ मैं साहिल से

यूँ ही जलाए रहो दिल में मोहब्बत के चराग़
ये काली रात  हैं बीतेगी बड़ी मुश्किल से

मेरे क़दमों में नहीं बाकी इतनी जुम्बिश
क्यूँ बुलाते हो मुझे  दूर खड़े मंज़िल  से

मज़हब की ये ज़ंजीर

गाये हैं जिसने सारी रात ग़म के तराने 
क्या सहर से उसको कोई उम्मीद न होगी 

ग़र चाहते हो फिर से जलें प्यार के चिराग़
मज़हब की ये ज़ंजीर तुम्हे तोड़नी होगी

कुछ लोगों से मत करना तू अपनी ख़ुशी का ज़िक्र 
क्या जानकर उसे उन्हें तक़लीफ़ न होगी 

घर घर में हो रही हैं रुसवाइयां जिनकी
जिस दिन मरेंगे क्या भला तारीफ़ न होगी 

Tuesday 21 June 2011

वो गूंजती आवाज़

मैं कब से कह रहा हूँ मेरा कुछ यकीं करो
उस हादिसे से मेरा कोई वास्ता न था

दोराहों ने अक्सर ही मुझे धोखा दिया है
मैं जिस तरफ से गुज़रा मेरा रास्ता न था

मेरा नसीब था कि मुझे वो ही सब मिले
मैं जान कर तो सारे ग़म तलाशता न था

वो गूंजती आवाज़ मेरे दिल की थी धड़कन
उन खिड़कियों से कोई भी पुकारता न था

जब भी किसी को भूल से कह डाली मुश्किलें
वो जान कर भी  मुझको  पहचानता न था



इतना बड़ा घना सा शहर कैसे बस गया 
कल तक तो इस  जगह पर कोई मकां न था 

तुम कैसे जिंदा बच गए उस ज़लज़ले के बाद 
कहते हैं लोग उसमे तो कोई बचा न था

Saturday 18 June 2011

ये आना ये जाना

खुशियों का यूँ ख़ैर मक़दम न होता 
अगर दिल में पहले से कुछ ग़म न होता

जो शब ग़र न करती सितम हम पे इतना 
तो फिर रोशंनी का ये आलम न होता 

वो उनकी ज़फाएं उन्ही को मुबारक़
मेरा प्यार जैसा है मद्धम न होता

फ़रिश्ते भी मिलकर जो करते इबादत 
ये आना ये जाना मगर कम न होता 

सुख दुःख क्या है ?

जितने फूल खिले उपवन में, कुछ पल वो सम्मान हैं पाते 
हम निहारते रहते उसको , प्रातः तक जो नहीं खिला है 
जो झोली में आ जाता है , क़ीमत अपनी खो देता है 
सुख हम सब कहते हैं उसको ,जो जीवन में नहीं मिला है


साथ हमारे जो भी रहता , वो लगता है अति साधारण 
उसको हम कुछ मान न देते , जो अपने संग पला बड़ा है 
एक दिन सुआ पलायन करता ,नयनों में भर जाता आंसू 
दुःख हम सब को वो देता है , जो मिलकर के चला गया है 

वफ़ा की तंग गलियों


महकते फूलों की ऋतु में, पवन के झूमते झोंके
गिरा कर सुर्ख़ गुंचों को, धरा की मांग भरते हैं

तो फिर माज़ी के पन्नों में , तेरी तस्वीर बनती है
मेरी पलकों की कोरों से , कई सावन गुज़रते हैं
 
वफ़ा की तंग गलियों   में   बड़ा  वहशी अँधेरा है
कि उस बस्ती में  जाने से अधिकतर लोग डरते हैं

तरक्क़ी के इन शोलों ने जला डाले सभी रिश्ते
हवस  की बदहवासी में हम कुछ भी कर गुज़रते हैं

कोई जीने को मरता है कोई जीता है मरने को
है आखिर फ़ैसला रब का कि हम जीते या मरते हैं




Friday 17 June 2011

अभी जिंदा हूँ



दिल की  देहलीज़ तक  अब आ गया है ग़म
मेरा मेहमान है   अन्दर तो बिठाना होगा



कुछ लोग ढूँढ़ते हैं मेरे दफ़्न की   जगह
अभी जिंदा हूँ उन्हें जा के बताना होगा

कोई भी नहीं होती  अब मेरी दुआ क़ुबूल
एक  नया  और ख़ुदा ढूंढ़  के लाना होगा

तुम जो  कहते हो तुम्हे भूल जाएँ हम
तुम्ही बताओ तुम्हे कैसे भुलाना होगा

Thursday 16 June 2011

पत्तों का शोर है


मुद्दत हुई जो आपकी आँखों से पी थी मय
अब तो ज़ेहन में बच गया उसका ख़ुमार है

वो मौसमे गुल आया था आ कर चला गया
अब तो चमन में सिर्फ एक ज़िक्रे बहार है

आँखों में जो तस्वीर थी वो मिट गई मगर
दिल पे भला किसी का कहाँ इख्तियार है

ये क़दमों की आहट नहीं पत्तों का शोर है
वो जा चुका है जिसका तुम्हे इंतज़ार है

है कौन इस जहाँ में जो करता नहीं गुनाह
तू  इस बेइरादा प्यार पे क्यूँ शर्मसार है






Wednesday 15 June 2011

हमपे अपनों ने सितम ढाए हैं


और करता तो ग़म नहीं होता
हम पे अपनों ने सितम ढाए हैं

कल कटेंगे सभी ऊँचे दरख़्त
जो खड़े आज सर उठाये हैं
 
उड़ने का मुंतज़िर है परिंदा एक
उम्र भर  जिसने पर कटाये है

सारी तोहमत मुझ ही पर क्यूँ
तुमने भी फासले बढ़ाये हैं

अपने चेहरे के ये काले धब्बे
तूने खुद हाथ से बनाए हैं

अभी ताज़ा हैं इस बदन पे निशां
तूने जो तीर आज़माए है

मदारी कौन है


सोच लोगों  का अनूठा बन चुका है
चमकते भारत का भूसा बन चुका है

जन्म के वक़्त चार उंगलियाँ भी थीं
हाथ अब सबका  अंगूठा बन चुका है

रात को दिन और दिन को रात
बेहया वो इतना झूठा बन चुका है

जानते हैं सब मदारी कौन है
देश का आक़ा जमूडा बन चुका है     

Tuesday 14 June 2011

जलता है शहर

क्यूँ शर्म से झुकी हैं, ये फूलों की डालियाँ 
गुलशन में कोई हादसा ,हुआ तो है ज़रूर 

वो लौट कर दरवाजे से ,वापस चला गया 
उससे किसी ने कुछ न कुछ ,कहा तो है ज़रूर 

जलता है शहर फिर भी , जिंदा हैं आज हम 
हम पे फकीरों की कुछ, दुआ तो है ज़रूर 

जो सच किसी ने बोला तो , पायेगा वो सलीब
ऐसा ही कल एक फैसला, हुआ तो है ज़रूर

Monday 13 June 2011

बिछा कर के प्यार की चादर


बंद आँखों पे बिछा कर के प्यार की चादर
करेंगे हम भी एक रोज़ फ़लक तक का सफ़र
उसी तरहा से चलेगा ये कारवां ऐ जहाँ
एक बस हम ही तुमको नहीं आयेंगे नज़र

यही बस होता चला आया यहाँ सदियों से
कोई ताकत न बदल पाई यहाँ का दस्तूर
बस इतना ही तो है फलसफा ए हयात
मैं भी मजबूर हूँ हालात से तू भी मजबूर

शमा मासूम है कितनी

जो तेरे सामने होने से कुछ तबियत संभलती है 
तेरा दीदार दिलकश है ,तो क्या ये मेरी ग़लती है ? 


ये दुनियां है यहाँ हर रोज़ ही, सब कुछ बदलता है
कोई सो जाता है थक कर ,किसी की आँख खुलती है


सफ़र की दूरियों का फ़र्क़ है, बस तुझ में और मुझ में
जब तेरा दिन निकलता है ,तो मेरी शाम ढलती है



तू कुछ तो क़द्र कर उसकी ,शमा मासूम है कितनी
रहे बस घर तेरा रोशन , वो सारी रात जलती है

Saturday 11 June 2011

वही वतन की हवा मांगती है तुझसे हिसाब


असल जो लूट थी वो बंट गयी है यारों में
बची झूठन को अब बांटेंगे वो क़तारों में

मेरे चेहरे में जो ढूंढे हैं तूने चंद दाग़
तेरी फ़ितरत में वो होंगे कई हज़ारों में

जहाँ रहो उसे लूटो और फिर चलते बनो
मैंने माना ये होता है फिरंगी का मिजाज़

जिसकी खुशबू से धड़कता है तेरे सीने में दिल
वही वतन की हवा मांगती है तुझसे हिसाब



जिंदा रहने का है बस हक़ रसूक़ वालों को
हर एक मोहसिन के हिस्से अब आएगी सलीब

कितना नायाब है अंदाज़े सियासत देखो
चैन से जियो क़त्ल कर के तुम अपना रक़ीब

Wednesday 8 June 2011

उजाले की नस्ल


इन तेज आँधियों में एक दिया है जल रहा
उसको बचा लो तुम जला कर हथेलियाँ

सब हो चुके  फ़ना अब सियाही से जंग में

उजाले की नस्ल का है ये एक आख़िरी निशां

वो रोज़ हड़पता रहा , मेरे घर की भी ज़मीन
मुझको दिखा दिखा के, सितारे और आसमां


अब झूठ और सच में कोई फ़र्क़ नहीं है
एक पतली सी दरार है दोनों के दरमियाँ

सौ झूठ बोल कर के  वो  पा जाता है इनाम
एक सच जो ग़र हम बोलें तो बनता है  एक गुनाह

Tuesday 7 June 2011

मज़हब है उसका कुर्सी

ये राम का है प्रेमी ,वो अल्लाह का बंदा है
बस आग लगाने का, आसान सा धंधा है
तेरा और मेरा भी ,बस एक हश्र तय है
दो गज़ सफ़ेद कपडा , और यार का कंधा है

वो है कि या नहीं है ,ये कौन जानता है
फिर इतने सारे क़िस्से, क्यूँ कर बखानता है
ये कैसी  दुश्मनी है , किस बात का है झगड़ा
मैं इसको मानता हूँ,तू उसको मानता है
मसाइल हैं एक जैसे , और हश्र एक जैसा
किस बात पर है बिगड़ा ,ये अपना मरासिम है
दिन सारा गुज़र जाए,और मिले न एक निवाला
क्या भूख सोचती है,ये हिन्दू है ये मुस्लिम है
मज़हब है उसका कुर्सी, पैसा है उसका ईमां
जो आज हुआ तुझपे , यूँ बेवजा मेहरबाँ
सियासत के खेल का, शातिर वो एक खिलाडी
 गरीबी और ये मज़हब ,उसके खेलने के सामां

Sunday 5 June 2011

तू फ़रिश्ता है


वो मेरे हक़ में  फैसला देगा, कल तलक मैं इसी उम्मीद में था
उसने मुझको तभी मारा खंज़र, जब मैं सोया था गहरी नींद में था


चलो ऐसा है तो ऐसा ही सही ,तू  फ़रिश्ता है गुनहगार हूँ मैं
तेरे भी चैन में ख़लल  तो पड़े,आज मरने को भी तैयार हूँ मैं


कैसी तक़दीर लिखा लाये हम , हुई सहर तो खा लिया उजालों ने
पहले ग़ैरों ने चमन को लूटा,    बाद में लूटा चमन वालों ने

Saturday 4 June 2011

नियति सपेरन


समय बटोही पंख लगा कर, उड़ता जाता प्रबल वेग से
वो भी याद बहुत आते हैं ,जो पल पीछे छुट जाते है
दूर क्षितिज है कितना हमसे, कौन हमें ये बतलायेगा
राहें कहाँ रुकी हैं अब तक , बस हम ही तो रुक जाते हैं
 
 
जो आया है वो जाएगा ,यही कहानी चलती आई
कितना भी श्रंगार करो तुम, होनी है एक रोज़ विदाई 

जीवन की आपाधापी में ,जाने कितने लक्ष्य बनाते
बीन बजाती नियति सपेरन ,सारे अर्थ बदल जाते हैं

पहले जब  छत पर चढ़ते थे  , दिखता था वो  गाँव तुम्हारा
हम तुम और बरखा की बूंदे ,बस इतना  संसार हमारा
आज प्रगति की इस आंधी ने, की ऐसी दीवार खड़ी है 
जाने पहचाने भी चेहरे, इसके पीछे छिप जाते हैं


Thursday 2 June 2011

शून्य से शून्य तक



मिल के तुमसे मुझे ग़र  बिछड़ना ही था 
तो  हुई तुमसे मेरी मुलाक़ात क्यूँ

रस्में क़समें  तो मैंने निभाईं थी सब
तब गए छोड़ कर तुम मेरा साथ  क्यूँ

मैं न बोला ,न रोया न शिकवा  कोई
मेरे बारे में इतनी हुई बात क्यूँ


उम्र भर भींचता वो रहा मुठ्ठियाँ
वक्ते आख़िर  थे उसके खुले हाथ क्यूँ

शून्य से शून्य तक का सफ़र ज़िन्दगी
फिर भला इस पे इतने सवालात क्यूँ