Tuesday 7 June 2011

मज़हब है उसका कुर्सी

ये राम का है प्रेमी ,वो अल्लाह का बंदा है
बस आग लगाने का, आसान सा धंधा है
तेरा और मेरा भी ,बस एक हश्र तय है
दो गज़ सफ़ेद कपडा , और यार का कंधा है

वो है कि या नहीं है ,ये कौन जानता है
फिर इतने सारे क़िस्से, क्यूँ कर बखानता है
ये कैसी  दुश्मनी है , किस बात का है झगड़ा
मैं इसको मानता हूँ,तू उसको मानता है
मसाइल हैं एक जैसे , और हश्र एक जैसा
किस बात पर है बिगड़ा ,ये अपना मरासिम है
दिन सारा गुज़र जाए,और मिले न एक निवाला
क्या भूख सोचती है,ये हिन्दू है ये मुस्लिम है
मज़हब है उसका कुर्सी, पैसा है उसका ईमां
जो आज हुआ तुझपे , यूँ बेवजा मेहरबाँ
सियासत के खेल का, शातिर वो एक खिलाडी
 गरीबी और ये मज़हब ,उसके खेलने के सामां

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