Saturday 4 June 2011

नियति सपेरन


समय बटोही पंख लगा कर, उड़ता जाता प्रबल वेग से
वो भी याद बहुत आते हैं ,जो पल पीछे छुट जाते है
दूर क्षितिज है कितना हमसे, कौन हमें ये बतलायेगा
राहें कहाँ रुकी हैं अब तक , बस हम ही तो रुक जाते हैं
 
 
जो आया है वो जाएगा ,यही कहानी चलती आई
कितना भी श्रंगार करो तुम, होनी है एक रोज़ विदाई 

जीवन की आपाधापी में ,जाने कितने लक्ष्य बनाते
बीन बजाती नियति सपेरन ,सारे अर्थ बदल जाते हैं

पहले जब  छत पर चढ़ते थे  , दिखता था वो  गाँव तुम्हारा
हम तुम और बरखा की बूंदे ,बस इतना  संसार हमारा
आज प्रगति की इस आंधी ने, की ऐसी दीवार खड़ी है 
जाने पहचाने भी चेहरे, इसके पीछे छिप जाते हैं


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