Wednesday 15 June 2011

हमपे अपनों ने सितम ढाए हैं


और करता तो ग़म नहीं होता
हम पे अपनों ने सितम ढाए हैं

कल कटेंगे सभी ऊँचे दरख़्त
जो खड़े आज सर उठाये हैं
 
उड़ने का मुंतज़िर है परिंदा एक
उम्र भर  जिसने पर कटाये है

सारी तोहमत मुझ ही पर क्यूँ
तुमने भी फासले बढ़ाये हैं

अपने चेहरे के ये काले धब्बे
तूने खुद हाथ से बनाए हैं

अभी ताज़ा हैं इस बदन पे निशां
तूने जो तीर आज़माए है

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