Sunday 27 January 2013

AJ qawali



ये कौन ले रहा है अंगडाई , आसमानों को नींद आती है

साकिया टाल न प्यासा मुझे मयखाने से
मेरे हिस्से की  छलक जायेगी पैमाने से


न तुम आये न शबे इन्तिज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार बार गुज़री है

वो बात जिसका फ़साने में कोई ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

न गुल खिले न उनसे मिले न मय  पी है
अजीब रंग में अबके बहार गुज़री है


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साग़र से सुराही टकराती , बादल को पसीना आ जाता
थोड़ी सी अगर छलका देते , सावन का महीना आ जाता
मंदिर मस्जिद में जाता है  तू ढूँढने जिसको दीवाने
दिल में ही रब मिल जाता तुझे
  , गर प्यार से जीना आ जाता
टूटा है अगर  तेरा दिल तो   ,इतना भी न रो और आह न भर
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आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक
हमने माना की तगाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम उनको खबर होने तक 
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक।

ग़म-ए-हस्ती का असदकिस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।

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जो मैं इतना जानती की प्रीत किये दुःख होय
तो नगर ढिंढोरा पीटती कि प्रीत न करियो कोय

नदी पार धुआं उठे मेरे दिल में खलबल होय
जा के काजे जोगन बनी कहीं वही न जलता होय
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रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

रित फूलों वाली तेरे बिन बीत जांदी ऐ
रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

तेरे बिन सूना लागे सारा ये जहान वे
तेरे बिन सूना लागे सारा ये जहान वे


याद तेरी आंदी मेरी निकले है जान वे
कल्ली मैं तो हारी ये दुनियाँ  जित जांदी ऐ

रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी


रित फूलों वाली तेरे बिन बीत जांदी ऐ

टूटा है अगर  तेरा दिल तो  ,इतना भी न रो और आह न भर
औरों के आंसू पीता चल
, तुझे कुछ तो पीना आ जाता

पीने वाले क्यूँ गली गली ढूँढा करते फिर मयखाने
गर उनको तुम्हारी आँखों से पीने का करीना आ जाता


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प्यार सिमटे तो तेरे होठों तक
गर जो फैले तो ये जहां कम है

क़त्ल कर के मेरा वो कहते हैं
हुआ है जो भी वो हुआ कम

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बाज़ीचा ऐ अफ्ताल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबो रोज़ तमाशा मेरे आगे

ईमां  मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र
क़ाबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

मत पूछ कि क्या रंग है मेरा तेरा पीछे
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे

गो हाथ में जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी
  साग़रो मीना मेरे आगे

साग़र से सुराही टकराती , बादल को पसीना आ जाता
थोड़ी सी अगर छलका देते , सावन का महीना आ जाता






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Friday 11 January 2013

दिल की सज़ा होता है

जब हिलाती है हवा कोई चमन की डाली
तेरे आने का गुमाँ होता है

अब यहाँ लोग जुबां से तो  कुछ नहीं कहते 
दर्द आँखों से बयाँ  होता है

इश्क़ की आग से पड़ते नहीं चेहरों पे दाग़ 
बस जिगर जल के धुंआ होता है

जो जा रहे हैं इन्ही राहों पे समझा दो उन्हें
प्यार  एक दिल की सज़ा होता है

Friday 4 January 2013

First line

1. जब दिल में एक लौ जलती है
2. न बुलाया न ख़त लिखा तुमने
3. सागर की गाते लहरों को
4. किरणों के रथ चढ़ सूरज  गया
5. तेरे शहर से आती है क्यूँ भीगी हवा
6.  जाने वाला चला गया लेकिन
7. बहुत अंधेरी है ये आज की रात
8. एक बूढ़ी सी चट्टान का है सागर को एक पयाम
9. थे साथ कई लोग न जाने किधर गए 
10.दर्द छिप कर के खड़ा है इसी दीवार के पीछे
11. अन्तस्तल के टूटे दर्पण में
12. बिन बरसे बादल चला गया
13 . पंख लगा देता यदि ईश्वर 

14.  फिर चली हैं सर्द हवाएं
15. गौरैया  अब भी आती है
16. कहीं और जा बहती पवन
17. मत पिला मुझको मज़हब की शराब
18. घर में नहीं  चिराग और अब ढल रही है शाम
19. शर्मिंदा हूँ मैं तेरा ये हाल देख कर
20. एक ही शम्मा भला कब तक जलेगी
21.सपनों की सरिता पर बहता जीवन
22. जाती हुई बहार का मातम न मना
23.बेसबब आँख क्यूँ भर आयी है
24. समय का पंछी पंख  लगाकर उड़ जाता है
25. कट गए हैं वो सभी दरख़्त

Thursday 3 January 2013

म्योर के वे दिन .......(11)

म्योर के वे दिन .......(11)

1968 में आल इंडिया रेडियों पर मेंडोलिन की एक धुन सुनने के बाद मन में इच्छा जागृत  हुई कि काश ! मैं इस वाद्य को बजा सकता । बिना सोचे समझे चौक की एक वाद्यों की एक दुकान 'स्वर मंदिर' जाकर एक मैन्डोलिन खरीद ली । प्रारंभ में तो कुछ भी करते नहीं बना , पर मैंने साहस नहीं छोड़ा । विश्वविद्यालय की छुट्टियां होतीं थी तब बाकी छात्रावासी तो घर चले जाते थे पर क्यूंकि मैं रिसर्च कर रहा था , मुझे तो छात्रावास में ही रहना पड़ता था । बरामदों की सीढ़ियों पर बैठे बैठे , आसमान में बादलों के रंग बदलते देखता रहता था और अपनी उंगलियाँ चलाता रहता था । विश्वास कीजिये , बाएं हाथ की उँगलियों के ऊपरी हिस्से चोटिल हो जाते थे । मुझे संगीत से प्यार था और प्यार में दर्द की कोई हैसियत नहीं होती । ईश्वर का आशीर्वाद मिला , उंगलियाँ अभ्यस्त होने लगीं और 1971 तक मैं ठीक ठाक मैन्डोलिन बजाने लगा ।

दिसंबर के आसपास इच्छा हुई कि क्यूँ न एक कव्वाली की धुन बनायी जाय और उसे सोशल फंक्शन में पेश किया । यूँ ही शब्द लिख लिए " कर के उनसे उम्मीदे करम , टूटे हैं अपने सारे भरम "। उसी वर्ष नवागंतुकों में एक विद्यार्थी प्रदीप कुमार बहुत अच्छा गाता था । सच कहिये तो उतना सुरीला गाने वाला उसके बाद कभी कोई छात्रावास में नहीं आया । मैंने उसको धुन सिखाई , और कुछ और साथियों को लेकर रिहर्सल प्रारम्भ कर दिए । कुछ लोगों ने प्रारम्भ में हतोत्साहित भी किया कि " इसमें वो बात नहीं है "। मैंने हिम्मत नहीं छोडी और उनकी कही गयी " वो बात " ढूँढने लगा । बीच बीच में ग़ालिब के शेर डाले और अंततः कव्वाली स्टेज हुई । ढोलक और हारमोनियम पर रेडियो के कलाकार तथा मैन्डोलिन पर मैं स्वयं था । लोगों ने सुना तो उछल पड़े । ज़बरदस्त तारीफ हुई ।

मेरे लिए ये एक नए युग की शुरुआत थी । तब से आज के दिन तक छात्रावास के सोशल फंक्शन का यह अपरिहार्य अंग बन गयी । अब तक अनेकों कव्वालियों की धुनें बना कर उन्हें छात्रावास के मंच पर पेश किया हैं । अधिकतर सूफी अंग रहता है , कभी भी एक भी सस्ता शेर कव्वाली का हिस्सा नहीं बना और यह सिलसिला अभी तक जारी है । मुख्य गायकों में प्रदीप कुमार , दिनेश गोस्वामी , देवराज त्रिपाठी , गिरिजेश सिंह , अनूप सिंह ,उदयन और अवनीश सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं ।

म्योर के वे दिन ....(10)

म्योर के वे दिन ....(10)
1968 में छात्रावास के सामान्य सचिव का चुनाव जीतने के बाद मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया था , इसलिए 1970 में सांस्कृतिक सचिव का चुनाव लड़ने का साहस जुटा लिया । अब तो वह वर्गीकरण लगभग समाप्त सा हो गया है परन्तु उस समय ऐ सी , डी सी का भेद चलता था । ऐ--> अमेरिकन , डी--> देशी । आगे आप समझें । मैं तो गर्व से कहता हूँ कि मैं डी सी था और हूँ । मेरे प्रतिद्वंदी आनंद कुमार पांड्या थे , जो बाद में चलकर आई ऐ एस हुए । प्रतिद्वंदी पक्ष के साथ मजबूत लोग थे , लोगों को उस समय की प्रचलित लम्बी सिगरेट विल्स फ़िल्टर आफर की जा रही थी और मेरे पास हाथ जोड़ने के सिवा कुछ भी नहीं था । चुनाव प्रक्रिया अति साधारण होती थी । अधीक्षक महोदय हर छात्रावासी को एक पर्ची देते थे और उस पर अपने पसंदीदा प्रत्याशी का नाम लिखना होता था । मेरे एक मित्र श्री हरिश्चंद्र गुप्ता ने आनंद पांड्या से नाम लिखने के लिए पैन माँगा और उन्होंने वोट पाने की आशा में पैन दे भी दिया | मजेदार बात देखिये कि गुप्ता जी ने उन्ही के सामने उन्ही के पैन से मेरा नाम लिख दिया । आनंद का खिसिया जाना लाजिमी था , बोले " अबे यार पैन हमारा और नाम एम सी का "। गुप्ता जी मुस्कुरा कर चलते बने। करीब आधे घंटे बाद मत गणना हुई । तकरीबन 100 वोट पड़े और में 12 वोट से विजयी हुआ । जीतने के बाद सबसे पहले आनंद से ही मिला और कहा कि तुम्हारे सहयोग के बिना मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा , और सच में उन्होंने बहुत सहयोग किया । हरिश्चंद्र गुप्ता जी की आई ऐ एस (प्रॉपर ) में छठी रेंक आयी और उन्हें यूं पी काडर मिला ।
मैं यहाँ पर यह अवश्य कहना चाहूँगा कि उस समय जब कि पूरे देश से लगभग प्रतिवर्ष 150 तक आई ऐ एस का चयन होता था , उसमें से लगभग 10 अमर नाथ झा छात्रावास से होते थे और रेंक 1 से लेकर 20 के बीच में । मैं तो फिजिक्स से था , मगर मुझे भी भारतीय संविधान , इतिहास इत्यादि का खासा ज्ञान बरामदों में टहलते घूमते हो गया था , क्यूंकि यह सब उस समय दीवालों पर लिखा रहता था ।

Tuesday 1 January 2013

मुझसे वादा करो


अपने आँचल के  उजालों की हिफ़ाज़त  के लिए
इन अंधेरों की फितरत को भी समझा करो

मैं मानता हूँ तुम्ही से है वादियों की रौनक
वक़्त बेवक्त बियाबानों में मत निकला करो

खुले बदन की नुमाइश भी ज़रूरी तो नहीं
कौन कहता है कि तुम हमसे अब परदा करो

तुम जियोगे लड़ोगे और सबसे जीतोगे
मेरे जिगर के ऐ टुकड़े ये मुझसे वादा करो