Thursday 3 January 2013

म्योर के वे दिन .......(11)

म्योर के वे दिन .......(11)

1968 में आल इंडिया रेडियों पर मेंडोलिन की एक धुन सुनने के बाद मन में इच्छा जागृत  हुई कि काश ! मैं इस वाद्य को बजा सकता । बिना सोचे समझे चौक की एक वाद्यों की एक दुकान 'स्वर मंदिर' जाकर एक मैन्डोलिन खरीद ली । प्रारंभ में तो कुछ भी करते नहीं बना , पर मैंने साहस नहीं छोड़ा । विश्वविद्यालय की छुट्टियां होतीं थी तब बाकी छात्रावासी तो घर चले जाते थे पर क्यूंकि मैं रिसर्च कर रहा था , मुझे तो छात्रावास में ही रहना पड़ता था । बरामदों की सीढ़ियों पर बैठे बैठे , आसमान में बादलों के रंग बदलते देखता रहता था और अपनी उंगलियाँ चलाता रहता था । विश्वास कीजिये , बाएं हाथ की उँगलियों के ऊपरी हिस्से चोटिल हो जाते थे । मुझे संगीत से प्यार था और प्यार में दर्द की कोई हैसियत नहीं होती । ईश्वर का आशीर्वाद मिला , उंगलियाँ अभ्यस्त होने लगीं और 1971 तक मैं ठीक ठाक मैन्डोलिन बजाने लगा ।

दिसंबर के आसपास इच्छा हुई कि क्यूँ न एक कव्वाली की धुन बनायी जाय और उसे सोशल फंक्शन में पेश किया । यूँ ही शब्द लिख लिए " कर के उनसे उम्मीदे करम , टूटे हैं अपने सारे भरम "। उसी वर्ष नवागंतुकों में एक विद्यार्थी प्रदीप कुमार बहुत अच्छा गाता था । सच कहिये तो उतना सुरीला गाने वाला उसके बाद कभी कोई छात्रावास में नहीं आया । मैंने उसको धुन सिखाई , और कुछ और साथियों को लेकर रिहर्सल प्रारम्भ कर दिए । कुछ लोगों ने प्रारम्भ में हतोत्साहित भी किया कि " इसमें वो बात नहीं है "। मैंने हिम्मत नहीं छोडी और उनकी कही गयी " वो बात " ढूँढने लगा । बीच बीच में ग़ालिब के शेर डाले और अंततः कव्वाली स्टेज हुई । ढोलक और हारमोनियम पर रेडियो के कलाकार तथा मैन्डोलिन पर मैं स्वयं था । लोगों ने सुना तो उछल पड़े । ज़बरदस्त तारीफ हुई ।

मेरे लिए ये एक नए युग की शुरुआत थी । तब से आज के दिन तक छात्रावास के सोशल फंक्शन का यह अपरिहार्य अंग बन गयी । अब तक अनेकों कव्वालियों की धुनें बना कर उन्हें छात्रावास के मंच पर पेश किया हैं । अधिकतर सूफी अंग रहता है , कभी भी एक भी सस्ता शेर कव्वाली का हिस्सा नहीं बना और यह सिलसिला अभी तक जारी है । मुख्य गायकों में प्रदीप कुमार , दिनेश गोस्वामी , देवराज त्रिपाठी , गिरिजेश सिंह , अनूप सिंह ,उदयन और अवनीश सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं ।

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