Monday 6 October 2014

लोग कह कर मरा नहीं करते

रोज़ कहते हो कि मर जायेंगे
लोग कह कर मरा नहीं करते

मैं बुरा हूँ तो रब से मेरे लिए
मौत की क्यूँ दुआ नहीं करते

आदमी खुद को दफ्न करता है
हादिसे यूँ हुआ नहीं करते

न भर तू आह, सुलगती है आग
जलते दिल को हवा नहीं करते

Sunday 14 September 2014

नाम तेरा कब कम हो जाए

पास है जो भी कब खो जाए
जन्नत कब दोज़ख हो जाए
खुशियाँ सब ओझल हो जाएँ
दर्द भरा आलम हो जाए
खुश्क हवाओं के मौसम में
आँख तेरी कब नम हो जाए
खुद जी और जीने दे सबको
किसे खबर है अगले पल की
ज़िंदा लोगों की सूची में
नाम तेरा कब कम हो जाए

उत्तर प्रदेश जिला अलीगढ

उत्तर प्रदेश जिला अलीगढ से चौदह मील दूर है एक क़स्बा खैर । वहीं जन्मा था मैं सन १९४९ मेँ  । निम्न मध्य वर्ग से कुछ और कमज़ोर परिवार । जब होश  संभाला तब उस समय हम चार भाई और एक बहन मिला कर पांच थे । मैं  सबसे छोटा था । जन्म से पहले तीन बड़ी बहनें जीवित नहीं रह सकीं । कुल मिला कर मैं  अपनी माँ की आठवीं संतान था । पिता एक इंटर कॉलेज में संस्कृत के अध्यापक थे । आर्थिक हालात इतने कमज़ोर कि मेरे जन्म के समय प्रसव का पूरा कार्य मेरी बड़ी बहन ने अपने हाथों से कराया था । प्रारम्भ में कोई पारम्परिक शिक्षा नहीं मिली । परन्तु सौभाग्यवश गणित के एक प्रश्न से प्रभावित हो कर , पिता जिस स्कूल में पढ़ाते थे उसके प्रिंसिपल श्री किशोरी लाल जी ने मेरा दाखिला सीधे पांचवीं कक्षा में कर दिया । उम्र कोई छह वर्ष कुछ माह रही होगी । गणित के अलावा विषय और भी थे जिन्हे समझनै में प्रारम्भ में बहुत कठिनाई हुई । आगे की कुछ कक्षाओं में गाडी लखड़ाते हुए आगे बड़ी ,पर नवी कक्षा में आते आते बुद्धि विकसित हुई और मेरा अपनी कक्षा में तीसरा स्थान आया । अगले वर्ष यू पी बोर्ड से हाई स्कूल की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण तो हुआ परन्तु बोर्ड में रैंक अच्छी नहीं थी फिर भी १६ रुपये प्रति माह की छात्रवृति मिलने लगी । 

Sunday 6 July 2014

यहाँ बहरे हैँ लोग

खामखाँ इनसे बहस मत कीजिये
हार जाओगे बहुत गहरें हैँ लोग

सुन नहीं सकते प्रलय की चींख क़ो
सो गए  हैँ  या यहाँ बहरे हैँ लोग

मर गया है क्या कोई फिर राहज़न
चलते चलते क्यों यहां ठहरे  हैँ लोग

हो चुका  सब कुछ नया मत सोचिए
एक खड़ी दीवार हैं , पहरे  हैँ लोग़

Saturday 17 May 2014

तो हम तुम भी वली होते

इबादत को समझ पाते
तो हम तुम भी वली होते

ज़ख्म की टीस गर सहते
तो कांटे भी कली होते

नास्तिक है भूखा पेट
बस यही सोचता है
ये शजर से टूटते पत्ते
एक रोटी अधजली होते

Tuesday 29 April 2014

तो ईश्वर न होता

किसी दर पे तेरा झुका सर न होता
अगर डर न होता तो ईश्वर न होता

अगर मंज़िलें अपने हाथो में होतीं
तो दुनिया में कोई मुसाफिर न होता

तुझे ज़ुल्म सहने की आदत न होती
तो ज़ालिम कभी तेरा रहबर न होता

अगर आसमानों से कुछ रिश्ते बनाता
तो गिरने को बिजली तेरा घर न होता

Wednesday 2 April 2014

लोग जला देते हैं

बदनसीब है  बदन चरागों की तरह
बुझने लगता है  तो लोग जला देते हैं


कौन जलते  ज़ख्मों पे रक्खे मरहम
जो हैं पहचान वाले बढ़ के  हवा देते हैं

Friday 7 March 2014

जिनकी तालीम

जिनकी तालीम उठाती है इंसानी क़द
ऐसे इंसान ज़माने को गिरे लगते हैं

जिनके साये ने रोकी है सूरज की तपिश
धूप ढल जाय तो वे लोग बुरे लगते हैं

कभी एक तरफ से नहीं जुड़ते  रिश्ते
जोड़ बनने में  दोनों ही सिरे लगते हैं

इतने गहरे  हैं कुछ ज़ख्म तेरी यादों के
बरस बीत गए  फिर भी हरे लगते हैं 

Sunday 16 February 2014

मैं उतना भी बुरा नहीं हूँ

मैं एक शजर हूँ तेरे चमन का
और ये भी सच है हरा नहीं हूँ

थका हूँ लड़ लड़ कर आँधियों से
खड़ा हूँ अब भी गिरा नहीं हूँ

समझ रहें हैं ज़माने वाले
मैं उतना भी बुरा नहीं हूँ

न कोसना तुम मेरी बेखुदी  को
आँख लगी है मरा नहीं हूँ

Thursday 16 January 2014

तुम्हारे साथ नज़र आउंगा

मैंने तो खुद नहीं देखे सपने
फिर भला तुमको क्या दिखाऊंगा
करोगे जब भी कुछ वतन के लिए
तुम्हारे साथ नज़र आउंगा

कौन बच पाया है इस दुनिया में
दोनों मरते हैं मक़तूल भी क़ातिल भी
करोगे जब भी कुछ अमन के लिए
तुम्हारे साथ नज़र आउंगा

खिलते इन फूलों का मज़हब है क्या
देती है नूर इनको बहती हवा
करोगे जब भी कुछ चमन के लिए
तुम्हारे साथ नज़र आउंगा

Tuesday 14 January 2014

फिर उन्ही राहों पे मुड़ना होगा

वक़्त कहता है कि उड़ना होगा
मिले थे तुमसे, बिछुड़ना होगा

बहुत सताएगी तन्हाई हमें
तुम्हारी यादों से जुड़ना होगा

दूर तक कोई भी हमदम न मिले
फिर उन्ही राहों पे मुड़ना होगा

भूल बैठे थे जो क़द झूमती हवाओं में
उन्ही पंखों को सिकुड़ना होगा