Saturday 15 December 2012

म्योर के वे दिन ......(1)


रात के लगभग 12 बजे के आसपास प्रयाग स्टेशन चाय पीने जाते थे , हम कोई चार पांच मित्र । मेरी हाथ में सीधी बांसुरी रहती थी । लौटते समय आधे सोये आधे जगे सरोजिनी नायडू छात्रावास के सामने कभी कभी रुक कर ऍफ़ सी आई की चहार दीवारी पर बैठ जाते थे । उस समय का प्रचलित गाना " मेघा छाये आधी रात , बैरन बन गयी निदिया ", मैं अक्सर बांसुरी पर बजाता था । लड़कियों को अंदाज़ नहीं होता था ,

मगर हम लोग साफ़ साफ़ देख पाते थे , छत पर धीमे धीमे झुक कर आते हुए सायों को । दो चार गाने बजाने के बाद उनको अलविदा कह कर हम लोग हास्टल लौट आते थे । कोई भी भद्दी अभिव्यक्ति नहीं होती थी हम लोगों की और से । वे सभी मित्र बाद में आई ए अस बने और अब लगभग सभी सेवा निवृत हो चुके हैं । वे दिन अब कभी नहीं लौटेंगे ....पर यादें तो बिना बुलाये आतीं हैं , उन पर किसी का ज़ोर नहीं चलता ।

मैं आगे भी इन यादों को सिलसिला ज़ारी रखूँगा । एक बात का विश्वास आप लोगों को दिलाना चाहूँगा , कि जो भी लिखूंगा उसमें न तो कुछ असत्य होगा ...न अतिशयोक्ति ।..

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