Thursday 20 December 2012

म्योर के वे दिन .... (7)

म्योर के वे दिन .... (7)

रहमत के वालिद पी सी एस अफसर थे और लखनऊ में पोस्टेड थे । दिवाली की छुट्टियां हुईं । छात्रावास खाली होने लगा ।मेरे साथ 3-4 मित्र मिलकर रहमत को प्रयाग स्टेशन छोड़ने गए । जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर रूकी , सभी ने बिना किसी पूर्व तोजना के तय किया कि चलो लखनऊ चलते हैं । आज कहीं जाना हो तो सौ तैय्यारियाँ होतीं है । मगर जवानी का ज़माना भी क्या होता है । न कपड़े , न बैग, न पैसे , टिकट लेने का तो समय ही कहाँ था , पर चल पड़े तो चल पड़े । । करीब चार घंटे के बाद जब लखनऊ आने लगा तो चिंता लगी कि टिकट तो लिया ही नहीं था , स्टेशन पर उतर कर क्या करेंगे । एक रेलवे क्रासिंग के पास गाड़ी धीमी हुई तो रहमत ने बताया कि उसका घर इस स्थान से पास पड़ेगा , सब के सब एक एक कर के चलती गाढ़ी से सावधानी से उतरने लगे । हड़बड़ी में मेरी बुद्धिठीक से काम नहीं की , भौतिकी के सारे नियम भूल कर गाढ़ी की चाल के विपरीत दिशा में कूदा , पटरी के बगल में पड़े पत्थरों पर चारो खाने चित्त गिरा , पहियों से मुश्किल से एक फीट की दूरी पर । मुझे इस तरह गिरते देख कर क्रासिंग पर खड़े लोगों के मुंह से चीख निकल गयी । मैं उठा तो एक खरोंच भी नहीं आयी थी । ऊपर वाला बचाना चाहे तो आदमी की हर गलती माफ़ है ।


    रहमत के घर पहुंचे । उसके वालिद एक दम शाही तबियत के इंसान थे । पूरा ड्राइंग रूम खाली कर के हम लोगों के हवाले कर दिया गया , और हम लोगों की अच्छी खातिर हुई । एक बहुत बड़े तवे पर बीस अण्डों का आमलेट तो पहली बार बनते देखा । उस दौरान एक बहुत उल्लेखनीय बात हुई , बड़ी दीवाली के दिन रहमत के पिता जी ने हमारी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ दिये भी अपने घर पर जलाए । बाद में वे इलाहाबाद में कमिश्नर भी नियुक्त हुए । जब तक वे जिंदा रहे , मैं जब भी उनसे मिलता था तो उनके पैर छूता था ....अब उतने बड़े दिल वाले लोग बड़ी मुश्किल से मिलते है ।

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