Monday 17 December 2012

म्योर के वे दिन ......( 4 )



सन 1971 की गर्मियां की बात है जब मैं रिसर्च कर रहा था । मैस तो अक्सर बंद ही रहता था । हास्टल के कमरा नम्बर 74 में बैठा हुआ था , पेट में चूहे दौड़ रहे थे । जेब में बहुत पैसे भी नहीं थे और ऊपर से चिलचिलाती हुई धूप । बाहर जाकर कुछ खाने के लिए निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था । तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया , खोल कर देखा तो हमारे बड़े भाई साहिब के दूर दराज़ के साले श्र

ी रमेश जी खड़े थे । राय बरेली में पी डब्ल्यू डी में जूनियर इंजीनियर थे । बातचीत के दौरान बताया कि हाई कोर्ट में किसी काम के सिलसिले में आये हैं । थोड़ी देर में बोले कि " मैं ज़रा खाना खाऊंगा , साथ में लाया हूँ "। कह कर उन्होंने बैग से टिफिन निकाला । टिफिन के खुलते ही शुद्ध घी के परांठों की खुशबू नाक से सीधे कलेजे तक उतर गयी ।पश्चिम के रहने वाले थे , परांठों की संख्या 12 से कम न रही होगी । औपचारिकतावश मुझसे पूछा " आप भी एक आधा लीजिये "। मेरे पास ना नुकुर करने लायक लज्जा नहीं बची थी , एक के बाद एक चार परांठे खा गया । जब मैंने कहा कि " आप थोडा आराम कर लीजिये ", तो तुरंत बोले " अरे मुझे तो ऐसे ही देर हो गयी है , वकील से मिलना है , चलूँगा "। कह कर नमस्कार किया और बैग उठाकर चलते बने । उनके जाने के बाद सोचने लगा कि सच ही कहा है कि 'दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम' । अवश्य ही उन चार पराठों पर " महेश चन्द्र शर्मा " लिखा होगा , तभी तो वे सज्जन तपती दोपहरी में इतनी दूर से आये और उन शुद्ध घी के पराठों को खिलाने के बाद ज़रा देर भी बिना रुके चले गए ।

जब ईश्वर को किसी का पेट भरना होता तो ऐसे ही देता है और जब भूखा रखना होता है तो बादशाहों की थाली में से उठा लेता है ।

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