Tuesday 25 December 2012

म्योर के वे दिन ... (9)

म्योर के वे दिन ... (9)

विश्वविद्यालय में एम एस सी भौतिक शास्त्र में 1964 में प्रवेश हुआ और पहली बार इलाहाबाद आया । एकदम अनजान शहर , उम्र 15 वर्ष 4 महीने, पास में एक टीन का बक्सा, कुछ कपडे और जेब में गिने चुने पैसे । आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर थी । पिता जी चार साल पहले रिटायर हो चुके थे ।पैसे का एकमात्र सहारा नेशनल छात्रवृति ।मूर्खता तो देखिये , सोचा था कि जो संस्था प्रवेश दे रही है वह रहने का स्थान भी देगी । जब पता पड़ा कि सारे छात्रावास भर चुके हैं ,मन एक दम निराश हो गया । किसी ने बताया कि अमर नाथ झा छात्रावास यहाँ का सबसे प्रसिद्ध छात्रावास है । हिम्मत जुटा कर सायंकाल उसके अधीक्षक महोदय डा मुश्रान से मिलने गया । पहले तो उन्होंने सीधे सीधे मना कर दिया , परन्तु जब मैंने अपनी मार्क शीट दिखाई , 82% अंक थे तब थोडा सोचने के बाद बोले कि कल आकर फ़ार्म भरदो और फीस जमा कर दो । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा ।रात प्रयाग स्टेशन पर बिताई । दूसरे दिन आ कर औपचारिकताएं पूरी कीं और एक डबल सीटेड कमरा आवंटित किया गया । कामन हाल के सामने सज्जन खड़े थे , उनसे कमरे का स्थान पूछा था कि मुझसे सीधे ही शुरू हो गए " अबे साले नए नए आए लगते हो , अपने बाप के बाप से पता पूछ रहे हो , विश नहीं करना जानते ?"। मेरी ऊपर से नीचें तक सारी चूलें हिल गयीं । इतनी देर में उनके कुछ और साथी एकत्रित हो गए । " चलो पचास फर्शी लगाओ "। मेरी कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने कहा " क्या करना है सर "। बोले " किस जंगल से आये हो , शकल से एक दम डी सी लगते हो "। फिर उन्होंने बताया कि फर्शी कैसे लगाई जाती है और मुझसे पूरी पचास फर्शियां लगवाई गयीं । भाग्यवश एक चपरासी ने हस्तक्षेप किया " भैय्या , जाइ दे , नवा नवा है , सब धीमे धीमे सीख जैहें "। मुझे छुटकारा मिला , कमरे में जाकर चैन की सांस ली ।
अभी मेरे दुखों का अंत नहीं हुआ था । रात में खिड़की पर किसी ने दस्तक दी , मैंने जैसे ही खिड़की खोली , एक ज़ोर की आवाज़ के साथ ढेर सारा पानी अन्दर आया । थोड़ी देर में समझ में आया , कि सुराही फोडी गयी थी । सारा बिस्तर भीग गया था , बिस्तर लपेट कर अलग करना पड़ा और किसी तरह राम राम कर के रात बीती । सितम्बर माह में फ्रेशर फंक्शन समाप्त होने तक गाहे बगाहे यह सिलसिला चलता रहा । सभी सीनियर्स को आदाब करना , उनका नाम तथा क्लास जानना आवश्यक होता था । आदाब करने की आदत तो ऐसी पड़ गयी थी , किसी भी अनजान चेहरे को देखते हो , हाथ खुद बा खुद उठ जाता था , चाहे वो कोई भी ही ।
थोड़े समय बाद सीनियर्स मित्रवत हो गए ।सभी तरह की मदद उनसे मिल जाती थी । बाद में इसी छात्रावास में 1968 में जनरल सेक्रेटरी , 1970 में सोशल सेक्रेटरी चुना गया । 1980 से 1984 तक अधीक्षक भी रहा और आज तक उसी संस्था से जुड़ा हुआ हूँ ।

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