Saturday 15 December 2012

म्योर के वे दिन ........(3)


1970 के दशक की बात है । उन दिनों प्रयाग संगीत समिति में अक्सर ही शाश्त्रीय संगीत के बड़े नामी कलाकार आते रहते थे । एक दिन कुछ मित्रों के साथ इच्छा जगी कि चल के सुना जाय । छात्रावासीय जीवन में जेब की पैसे से दुश्मनी बनी रहती है । इच्छा प्रबल थी , बिना कुछ सोचे समझे चल दिए । समिति पहुच कर समस्या बनी कि अन्दर कैसे जाया जाय । अल्फ्रेड पार्क के अन्दर की ओर से संगीत समिति के

पीछे की तरफ गए । सौभाग्य से चहार दीवारी लगभग दस फीट ऊंची थी । "गोविंदा आला " युक्ति से अन्दर कूद लगाईं । जैसे ही अंतिम साथी कूदा कि चौकीदार की नज़र हम पर पड़ गयी । आनन फानन में "पकड़ो पकड़ो " का नारा लगा और हम लोग धर लिए गए । एक चैनल गेट के अन्दर बंद कर दिया गया । एक कटरा के सज्जन दिखाई दिए तो मैंने गुहार लगाई " भाई साहब , आप तो हमें जानते है , हम लोग चोर उचक्के नहीं हैं "। उन्होंने बड़ी बेरुखी से उत्तर दिया " हाँ हाँ जानते हैं , ऐ एन झा में रहते हो , रिसर्च करते हो ,अब जो किया है सो भुगतो "। प्रबंधकों को सूचना दी गयी । काटो तो खून नहीं । अचानक थोड़ी देर में एक सज्जन आये , बड़ा सुन्दर व्यक्तित्व था , ताला खुलवा कर बोले " आप लोग आइये मेरे साथ "। लगा कि अब पुलिस के सुपुर्द किये जायेंगे , इज्ज़त की वाट लगने वाली है । परन्तु भाग्य पल्टा खा चुका था , उन्होंने हमें हाल में अन्दर ले जाकर सबसे आगे से तीसरी पंक्ति में बिठा दिया और कहा कि "बैठिये और सुनिए "। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । मैं इस घटना को कभी भूल नहीं पाया । संगीत से जुड़े लोग संवेदन शील तो होते ही हैं , मुझे लगा कि उस सहृदय मनुष्य ने सोचा होगा कि शाश्त्रीय संगीत, जिसको सच्चे मायने में बहुत ही कम लोग समझते हैं , उसके लिए यदि कोई दस फीट की ऊंची दीवार से छलांग लगा सकता है तो उसका सुनने का हक़ तो बनता है ।
"माना कि तेरे दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
मेरा शौक़ देख मेरा इंतज़ार देख "

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