Sunday 8 January 2012

जेब से खंजर निकला

बड़ी है तल्ख़ ज़िंदगी की शराब
हर एक घूंट से जलता है गला

जब भी ग़ुरबत में हाथ फैलाये
हर एक जेब से खंजर निकला

क़त्ल में सारा शहर शामिल था
क्यूँ करूँ मैं फ़क़त तुमसे ही गिला
 
बहुत पहले ही से बेहोश हूँ मैं
मेरे साक़ी मुझे तू अब न पिला

न ग़र सुकूँ तो तशद्दुद ही सही
तेरी सोहबत से हमें कुछ तो मिला

ये जानते हैं कि जान जायेगी
हमें मालूम है मोहब्बत का सिला 

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