Monday 8 October 2012

ऐ सियाही रात की अब

क़श्ती भी हूँ साहिल भी हूँ
रस्ता भी हूँ मंज़िल हूँ मैं
मोहसिन भी हूँ क़ातिल भी हूँ
आसाँ भी हूँ मुश्किल हूँ मैं

जैसी भी थीं महफ़िलें
वैसे ही पहने है लिबास
मैय्यत में हूँ रोता हुआ
बारात में शामिल हूँ मैं

जी में आता है जला दूँ
दुश्मनों के आशियाँ
क्या करूँ मजबूर हूँ
बच्चे का नन्हा दिल हूँ में
उम्र भर जलने के बाद
पूछता है ये चराग़
ऐ सियाही रात की अब
क्या तेरे काबिल हूँ मैं ?

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