Monday, 23 December 2013

मैं विश्वविद्यालय को वर्गों में नहीं आंकता

सभी विद्यार्थियों , अध्यापक तथा समाज के और लोगों के विचार सुनने के बाद मैं अपना आकलन बताना चाहूंगा । मैं ग़लत भी हो सकता हूँ ।
" मैं विश्वविद्यालय को वर्गों में नहीं आंकता । विद्यार्थी अच्छे भी होते हैं , बुरे भी होते हैं ,अध्यापक अच्छे भी होते हैं , बुरे भी होते हैं। जे के इंस्टिट्यूट में जो हुआ वह बहुत दुखद है । विश्वविद्यालय प्रशासन ने विद्यार्थियों के प्रदर्शन के बावजूद इसकी गभीरता को नहीं समझा या समझ कर नहीं समझा । उपकुलपति महोदय , जिन्होंने अपनी वीर गाथाएं सुना सुना कर हमारे कान पका दिए , अध्यापक और विद्यार्थी को अछूत समझते हैं । अध्यापक संघ की मीटिंग में आना उन्हें गवारा नहीं । दस विद्यार्थियों से वार्तालाप नहीं कर सकते हैं । एक अध्यापक जो विज्ञान के नाम पर कोढ़ है पर जिसका यू जी सी और डी एस टी में ज़ोर है उसकी परिस्थिति सम्भालने के लिए वे बिना आमंत्रण के भी विभाग में आ सकते हैं । ईश्वर जाने इस विश्वविद्यालय का क्या होगा और यह वक्तव्य देने के बाद मेरे साथ क्या होगा ,नहीं मालूम ।

दुष्यंत की पंक्तियाँ याद आतीं हैं
" हम बहुत कुछ सोचतें हैं पर कभी कहते नहीं"

Sunday, 22 December 2013

विकलांग केंद्र

मैं सन १९७१ से डा अमर नाथ झा छात्रावास के सांस्कृतिक समारोह के लिए कव्वालियों के लिए संगीत रचना करता आ रहा हूँ । मुझे यह विधा इस लिए पसंद है कि इसमें ग़ज़ल , नज़्म , कविता और लोकगीत किसी का भी सहारा ले कर आप अपनी बात कह सकते हैं । कई वर्ष पहले उदीशा की कव्वाली प्रतियोगिता में हम लोगों को पारितोषिक धन राशि के रूप में मिला , संभवतया ५०० रु । १५ वर्ष पहले यह धन राशि काफी होती थी । वह उदीशा विकलांगो को समर्पित की गयी थी । बात यह उठी कि इस पैसे क्या किया जाय , किसी होटल में चल के खाना खाया जाय... । पर मेरे कहने पर कि यह धन राशि किसी अच्छे कार्य में लगाईं जाय , हम लोग भारद्वाज आश्रम पर गए और यह पैसा वहाँ के विकलांग केंद्र के संचालक महोदय को दिया । कोई बंगाली बुज़ुर्ग थे , मुझे नाम याद नहीं आ रहा है । उन्होंने सभी विकलांग बच्चों को एकत्रित किया और "हम होंगे कामयाब " गाना गवाया । मेरे आंसू रोके नहीं रुक रहे थे और सोच रहा था कि ईश्वर तू मुझे भी ऐसा ही बना देता तो मैं तेरा क्या बिगाड़ लेता ।

Wednesday, 18 December 2013

यहाँ बंजर ज़मीनें हैं....

न उगना  भूल  से भी ऐ गुलो  तुम इस गुलिस्तां में
यहाँ बंजर ज़मीनें हैं यहाँ बारिश नहीं होती

परिंदे भी बनाते हैं यहाँ घर आसमानों में
ज़मी पर चल सकें  पैरों में  वो ताकत  नहीं होती

झुकाये  हैं जिन्होंने सदियों तक गैरों के आगे सर 
उन्हें  सच बोलने की सच में ही आदत नहीं होती

कि जिस रब को हम सबने ही सरे बाज़ार बेचा है
दुआ मांगू उसी से अब मेरी हिम्मत नहीं होती 

Monday, 18 November 2013

बड़ा पाप.....

यदि आपके ऊपर कोई आश्रित नही है और आप एकांत में थोड़ी बहुत शराब पीते हैं , यह ग़लत तो है परन्तु बहुत बड़ा पाप नहीं है , क्यूंकि इससे आप केवल अपनी ही हानि करते हैं , किसी और की नहीं । दूसरी परिस्थिति वह है जिसमें आप के ऊपर एक परिवार आश्रित है , आपके पीने से आपका अपना स्वस्थ्य तो जाएगा ही , घर का आर्थिक संतुलन बिगड़ेगा , संतान पर बुरा प्रभाव पड़ेगा । यह बहुत बड़ा पाप है ।
आप बीती सुनाता हूँ । छात्रावासीय अंतिम वर्षों में मैंने थोडा बहुत पीना प्रारम्भ कर दिया था , कारण अनेक थे जिनको यहाँ पर लिखना सम्भव नहीं है । तीसरे चौथे दिन कुछ न कुछ हो जाती थी और यह क़रीब चार पांच वर्षों तक चलता रहा । नवम्बर १९७७ में मेरा विवाह तय हुआ , मैंने सोचा कि यदि मैं इस रास्ते पर चलता रहा तो मेरे परिवार का क्या होगा ? शादी हुई नहीं थी , होनी थी । मेरे ऊपर कोई दवाब नहीं था , किसी ने कोई सलाह नहीं दी। एक शाम को तय किया कि अब नहीं …। मेरा ईश्वर और परिवार गवाह है कि तब से आज ३५ वर्ष हो गए , मैंने शराब तो क्या मीठा पान भी नहीं खाया । मेरी माँ मुझे एक वर्ष का छोड़ कर स्वर्ग सिधार गयी थीं , बुज़ुर्ग बताते हैं , वे एक बहुत ही सरल ह्रदय की महिला थीं । संभवतया उन्ही के आशीर्वाद के फलस्वरूप मुझे यह प्रेरणा मिली और मैं एक बड़े पाप से बच गया ।
वैसे यदि आप अकेले भी हैं तो इस लत से बचिए क्यूंकि इसके प्रयोग से हानि छोड़ और कुछ नहीं होता ।

Thursday, 14 November 2013

प्यार हो जाएगा डर लगता है


बेपर्दा न आ   तसव्वुर में मेरे
प्यार हो जाएगा डर लगता है

सुबह की धूप है  चेहरा तेरा
ये सच नहीं है मगर लगता है

मिल गये   तुम नसीब है मेरा
ये दुआओं का असर लगता है

किस मक़ाम  पे ले आयी  उमर
हर एक दर्द अब तो  दर्दे जिगर लगता है 

दर्दे जिगर लगता है

बेपर्दा न आ   तसव्वुर में मेरे
प्यार हो जाएगा डर लगता है

सुबह की धूप से रुखसार तेरे
ये सच नहीं है मगर लगता है 

दिख गए तुम नसीब है मेरा
ये दुआओं का असर लगता है

किस मक़ाम  पे ले आयी  उमर 
हर एक दर्द अब तो  दर्दे जिगर लगता है

Tuesday, 12 November 2013

मैं कैसा हूँ

मुमकिन नहीं कि खुद को देख पाऊँ मैं
अब तुम ही बता सकते हो मैं कैसा हूँ

नहीं बची है उमर बदलूं और सुधर जाऊं
मुझे स्वीकार करो जो भी हूँ और जैसा हूँ

बड़ी उसूलों की क़ीमत चुकाई है दिल ने 

तुम ग़लती से समझ लेना ऐसा वैसा हूँ
 

बांटने निकला हूँ कुछ मोम जैसे एहसास
कौन लेगा ,
न तो दौलत हूँ और न पैसा हूँ 



                                                   

Monday, 11 November 2013

रोज़ कहते हो कि मर जायेंगे


रोज़ कहते हो कि मर जायेंगे
लोग कह कर कभी नहीं मरते

मैं बुरा हूँ  तो रब से मेरे लिए
क्यूँ मौत की दुआ नहीं   करते 

आदमी खुद  को दफ्न करता है
 हादिसे   यूँ  ही हुआ नहीं करते

 न भर  तू आह, सुलगती है आग   
 जले  कोई  तो  हवा  नहीं करते 

Thursday, 7 November 2013

लोग जग जाएंगे मातम न करना

आधी रात में  पत्ते गिरें तो ग़म न करना
लोग जग जाएंगे मातम न करना

कि जब तक प्यार ज़िंदा है ये दुनिया है
ग़रीबों से मोहब्बत  कम न करना

बस आंसू ही आंसू हैं जिधर देखोगे तुम
आँखें महबूब की पुरनम न करना

जो गर मेरे तसव्वुर से  जिगर तडपे तेरा
याद मुझको मेरे हमदम न करना

Wednesday, 6 November 2013

रोने से न गया तेरा ग़म

रोने से न गया तेरा ग़म
मजबूर हो के हंसना पड़ा

छिपाये रखना था जो  राज़
 सरे बज़्म उसे कहना पड़ा

 क़तरा तक़दीर बदल न सके
उसने  रक्खा वैसे रहना पड़ा

 उम्र भर डरते थे बरसातों से
आज  सैलाब  मॆं  बहना  पड़ा 

Saturday, 26 October 2013

शराबी कहीं के ...


मैं हारा हूँ जब भी , है कहता ज़माना
बदलते हैं दिन हर किसी आदमी के

बिना कुछ कहे मर गया मरने वाला
अदा क़त्ल की अब कोई उनसे सीखे

है इतनी सी बस दास्ताने मोहब्बत
थोड़े से पत्थर और कुछ टूटे शीशे

आँखों से भर भर पिलाते गए वो
और कहते रहे "मर शराबी कहीं के "

Sunday, 20 October 2013

पाखी रे पंख दे

पाखी रे पंख दे ..........थोड़ी उमंग दे
कहता है मेरा मन , जाना है तेरे गाँव

थोडा सा प्यार दे ....... ऐसा संसार दे
चलूँ मैं जितना भी थकें नहीं मेरे पाँव

धूप में सह लूँगा ......सूरज से लड़ लूँगा
मिल जाए गर तेरी फ़ैली पलकों की छाँव

Monday, 7 October 2013

सैय्याद ही बदला है


वही मकतूल वही खंजर वही हैं हादिसे
गर जो बदला है तो सैय्याद ही बदला है



ग़ज़ब की भीड़ और एक भी क़तार नहीं
छिडी है जंग यहाँ कौन किससे पहला है

कैसे धुल जाते हैं दामन पे लगे  खून के दाग 
क़त्ल करते है  रोज़ पर लिबास उजला है

भूख तुमको लगी है कहते हैं कुर्सी वाले
तुम्ही निबटाओ इसे ये तुम्हारा मसला है




Sunday, 29 September 2013

दिया हूँ बुझता हुआ

दिया हूँ बुझता हुआ मुझपे भरोसा न करो
चलो बुरा हूँ मैं पर इतना भी कोसा न करो

यहाँ से जो भी गया एक ही कपडे में गया
ये मेरा है वो मेरा है खामखाँ सोचा न करो

हर एक चेहरे के पीछे एक नया चेहरा है
बिना पहचान दिलो जान परोसा न करो

तुमको चाहा है बस इतनी खता है मेरी
मेरी नज़र को भरे शहर में रुसवा न करो

Thursday, 26 September 2013

नफ़रत सी हो चली है




जुड़ गया है इसका रिश्ता क़त्ले आम से
नफ़रत सी हो चली है मज़हब के नाम से

खून बहाने की तुम्हे किसने दी इजाज़त 
पूछेंगे हम अल्लाह से पूछेंगे राम से

ना जाने कहाँ खो गयीं , गीता औ कुरान
अहले जहां को  इश्क हुआ  इंतक़ाम  से

चुपचाप लौट जाऊँगा  मयखाने से  प्यासा
बस  एक घूँट दे दे  मोहब्बत के जाम से 

Sunday, 22 September 2013

दीवार में बिछी है बारूद सियासत की

  दीवार में बिछी है  बारूद सियासत की
  जलाई आग  तो उड़ जाओगे

  थाम कर रखना मोहब्बत का दामन  
  उसको छोड़ोगे  बिछड़ जाओगे

 सियाही इतनी जमी है तुम्हारे चेहरे पे
 देखोगे शर्म से गड़  जाओगे 

थोडा तो जान लो अफवाहों का सच
यूँ ही हर बात पे लड़ जाओगे  ?

Saturday, 7 September 2013

आख़िरी पहर का ख्वाब


मैं हूँ एक  आख़िरी पहर का ख्वाब
पूरा होने तलक रात ढल जायेगी

न  रोक तू  मेरे  अश्कों का सैलाब
थोडा रोने से हालत  संभल जायेगी

कुछ तो  दे दे  मेरे खतों का जवाब
कसक मेरे दिल की निकल जायगी

 तेरा चेहरा उगते सूरज का शबाब
 

Saturday, 3 August 2013

यूँ इम्तिहान न ले

ऐ मोहब्बत यूँ  इम्तिहान न ले
जो चाहते हें उनकी  जान न ले

ज़ख्म औरों के तलाशते  है सभी 
राज़ उनका  कोई भी जान न ले

जो बन सके तो बाँट ले दर्दे जहां
बद दुआएं किसी की इंसान न ले 

जो भी है पास तुझको दे दूंगा  
दोस्त मुझसे मेरा ईमान न ले

Thursday, 25 July 2013

वही दिल तक पहुँचते हैं

लौट जाते हैं टकरा कर बदन से बेशुमार अलफ़ाज़
निकलते हैं जो दिल से बस वही दिल तक
पहुँचते हैं
न जाने कितनी रूहे दफ़्न हो जाती हैं दरिया में
सफ़ीने खुशनसीबों के ही साहिल तक पहुँचते हैं

सज़ा मिलती है मासूमों को दुनिया की अदालत में
हाथ क़ानून के कब सच में क़ातिल
तक पहुँचते हैं

कही है दास्ताँ  कुछ  तो   तेरी  झुकती निगाहों ने
यही बस  देखना है कब तेरे  दिल तक पहुँचते हैं

Tuesday, 23 July 2013

कोई तो दर्द दिल में पलने दे



जो सुलगता  है तेरे ज़ेहन में
खिड़कियाँ खोल  उसे जलने दे 

दूंगा  तोहमतों का जवाब
अभी बेचैन हूँ  संभलने दे

ये वीरानियाँ बहुत सताएंगी
कोई तो दर्द दिल में पलने दे

रुके जो पाँव तो मर जाऊँगा
अभी हिम्मत है मुझे चलने दे

है चरागाँ  मेरे सनम  की गली
घर से बाहर मुझे निकलने दे




Tuesday, 16 July 2013

मैं उसी निगाह में क़ैद हूँ


मैं उसी निगाह में क़ैद  हूँ   जिसे दिल जलाने का शौक़ है
न  मिलेगा मुझको वो बेरहम उसे आज़माने  का शौक़ है

उस  बेवफ़ा का  हूँ  मुन्तजिर एक रात में जो बदल गया
कभी ये सनम कभी वो सनम ये नए ज़माने का शौक़ है 

 ग़र एक बार की बात हो कोई रख दें कलेजा निकाल
के
उसे  कौन कब तक  मनायेगा  जिसे रुंठ जाने का शौक़ है

अब तेरे बिछड़े मकान में रहने आ गया है कोई  अजनबी
जो पुकारता था वो चला  गया  किसे अब बुलाने का शौक़ है

Wednesday, 10 July 2013

ये वो ग़म का खज़ाना है

मोहब्बत में सुकूँ का कोई भी आलम नहीं होता
ये वो ग़म का खज़ाना है कभी जो कम नहीं होता

तन्हाई रात की रह रह पिघलती है तो बनता है
समन्दर में हर क़तरा आब का शबनम नहीं होता

जो खुशियाँ हैं तो फिर क्या है ज़माना ही हमारा है
छलकती आँख का कोई यहाँ हमदम नहीं होता

फिजायें कैसी भी बदलें भिगो जातीं हैं दामन को
जो आंसू सोख ले ऐसा कोई मौसम नहीं होता

Thursday, 20 June 2013

हर एक खुशी से पहले

ग़म देर तक रुका है हर एक खुशी से पहले
हाँ   कुछ तो होश था हमें इस बेखुदी से पहले

ये  वक़्त का जादू है  किस को न बदल डाले
इंसान  एक बना  था इस आदमी से पहले

इस खेल में  किसी का मुक़द्दर न  डूब जाए
थोडा था सोचा करिए एक दिल्लगी  से पहले

ख्वाबों का आशियाँ क्यूँ कर सजाये कोई
सामान ए मौत हाज़िर है ज़िंदगी से पहले

Sunday, 16 June 2013

कुछ इस तरह गए तुम

कुछ इस तरह गए तुम मेरी ज़िंदगी में आके
ठहरे हुए पानी को हिला दे कोई पत्थर

जितनी भी कोशिशें कीं लहरों ने बिछड़ने की
हर बार उतना ही बड़ा होता गया सागर

औरों से पूछते हो क्या मैं अभी ज़िंदा हूँ
बेहतर है मेरे घर में खुद देख लो आकर

Wednesday, 20 March 2013

पत्ते सूखे ही सही

पत्ते सूखे ही सही फिर भी एक गवाह तो हैं 
इस  बयाबां में भी  एक दिन बहार आयी थी

भले ही  लाख  कहो प्यार नहीं था   मुझसे
मिली जो नज़रें तेरी आँख क्यूँ शरमाई थी

अलग मिला था सिला प्यार का हम दोनों को
वो  दास्ताँ तेरी शोहरत मेरी रुसवाई थी

गुलों की शोखियों ने तुझको भुलाने न दिया
झूमती शाख को देखा तू याद आयी थी  

Friday, 8 February 2013

ग़र न हो

ग़र न हो आब तो आंसू मिलाइये
बड़ी है तल्ख़ ये ग़मों की शराब

या ख़ुदा काश ये भी हो सकता
तेरे चेहरे पे जो रुक जाता शबाब

ज़िंदगी हुस्न की तिजारत है
यहाँ हर उम्र को देना है हिसाब

बहस तो हर रोज़ हुआ करती है
उनमें होते नहीं सवालों के जवाब

Saturday, 2 February 2013

एक आशियाँ था यहाँ

एक आशियाँ था यहाँ
कहाँ गया चलो आँधियों से पूछते हैं

एक घोंसला था चिड़िया का
किसने तोडा चलो पंछियों से पूछते हैं

बिना बताये उनका चुप रहना
कोई इतना तो बताये वो क्यूँ रूठते हैं

हवा चले या कि खामोश रहे
पत्तों को टूटना होता है सो रोज़ टूटते हैं

Sunday, 27 January 2013

AJ qawali



ये कौन ले रहा है अंगडाई , आसमानों को नींद आती है

साकिया टाल न प्यासा मुझे मयखाने से
मेरे हिस्से की  छलक जायेगी पैमाने से


न तुम आये न शबे इन्तिज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार बार गुज़री है

वो बात जिसका फ़साने में कोई ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

न गुल खिले न उनसे मिले न मय  पी है
अजीब रंग में अबके बहार गुज़री है


.............................................................................

साग़र से सुराही टकराती , बादल को पसीना आ जाता
थोड़ी सी अगर छलका देते , सावन का महीना आ जाता
मंदिर मस्जिद में जाता है  तू ढूँढने जिसको दीवाने
दिल में ही रब मिल जाता तुझे
  , गर प्यार से जीना आ जाता
टूटा है अगर  तेरा दिल तो   ,इतना भी न रो और आह न भर
....
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक
हमने माना की तगाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम उनको खबर होने तक 
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक।

ग़म-ए-हस्ती का असदकिस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।

.........................................................
जो मैं इतना जानती की प्रीत किये दुःख होय
तो नगर ढिंढोरा पीटती कि प्रीत न करियो कोय

नदी पार धुआं उठे मेरे दिल में खलबल होय
जा के काजे जोगन बनी कहीं वही न जलता होय
...............................................................
रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

रित फूलों वाली तेरे बिन बीत जांदी ऐ
रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

तेरे बिन सूना लागे सारा ये जहान वे
तेरे बिन सूना लागे सारा ये जहान वे


याद तेरी आंदी मेरी निकले है जान वे
कल्ली मैं तो हारी ये दुनियाँ  जित जांदी ऐ

रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी

रांझे मैं तुझपे वारी
रान्झेया आजा एक वारी


रित फूलों वाली तेरे बिन बीत जांदी ऐ

टूटा है अगर  तेरा दिल तो  ,इतना भी न रो और आह न भर
औरों के आंसू पीता चल
, तुझे कुछ तो पीना आ जाता

पीने वाले क्यूँ गली गली ढूँढा करते फिर मयखाने
गर उनको तुम्हारी आँखों से पीने का करीना आ जाता


………………………………………………………..

प्यार सिमटे तो तेरे होठों तक
गर जो फैले तो ये जहां कम है

क़त्ल कर के मेरा वो कहते हैं
हुआ है जो भी वो हुआ कम

 …………………………..

बाज़ीचा ऐ अफ्ताल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबो रोज़ तमाशा मेरे आगे

ईमां  मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ्र
क़ाबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

मत पूछ कि क्या रंग है मेरा तेरा पीछे
ये देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे

गो हाथ में जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी
  साग़रो मीना मेरे आगे

साग़र से सुराही टकराती , बादल को पसीना आ जाता
थोड़ी सी अगर छलका देते , सावन का महीना आ जाता






………………………………………….






Friday, 11 January 2013

दिल की सज़ा होता है

जब हिलाती है हवा कोई चमन की डाली
तेरे आने का गुमाँ होता है

अब यहाँ लोग जुबां से तो  कुछ नहीं कहते 
दर्द आँखों से बयाँ  होता है

इश्क़ की आग से पड़ते नहीं चेहरों पे दाग़ 
बस जिगर जल के धुंआ होता है

जो जा रहे हैं इन्ही राहों पे समझा दो उन्हें
प्यार  एक दिल की सज़ा होता है

Friday, 4 January 2013

First line

1. जब दिल में एक लौ जलती है
2. न बुलाया न ख़त लिखा तुमने
3. सागर की गाते लहरों को
4. किरणों के रथ चढ़ सूरज  गया
5. तेरे शहर से आती है क्यूँ भीगी हवा
6.  जाने वाला चला गया लेकिन
7. बहुत अंधेरी है ये आज की रात
8. एक बूढ़ी सी चट्टान का है सागर को एक पयाम
9. थे साथ कई लोग न जाने किधर गए 
10.दर्द छिप कर के खड़ा है इसी दीवार के पीछे
11. अन्तस्तल के टूटे दर्पण में
12. बिन बरसे बादल चला गया
13 . पंख लगा देता यदि ईश्वर 

14.  फिर चली हैं सर्द हवाएं
15. गौरैया  अब भी आती है
16. कहीं और जा बहती पवन
17. मत पिला मुझको मज़हब की शराब
18. घर में नहीं  चिराग और अब ढल रही है शाम
19. शर्मिंदा हूँ मैं तेरा ये हाल देख कर
20. एक ही शम्मा भला कब तक जलेगी
21.सपनों की सरिता पर बहता जीवन
22. जाती हुई बहार का मातम न मना
23.बेसबब आँख क्यूँ भर आयी है
24. समय का पंछी पंख  लगाकर उड़ जाता है
25. कट गए हैं वो सभी दरख़्त

Thursday, 3 January 2013

म्योर के वे दिन .......(11)

म्योर के वे दिन .......(11)

1968 में आल इंडिया रेडियों पर मेंडोलिन की एक धुन सुनने के बाद मन में इच्छा जागृत  हुई कि काश ! मैं इस वाद्य को बजा सकता । बिना सोचे समझे चौक की एक वाद्यों की एक दुकान 'स्वर मंदिर' जाकर एक मैन्डोलिन खरीद ली । प्रारंभ में तो कुछ भी करते नहीं बना , पर मैंने साहस नहीं छोड़ा । विश्वविद्यालय की छुट्टियां होतीं थी तब बाकी छात्रावासी तो घर चले जाते थे पर क्यूंकि मैं रिसर्च कर रहा था , मुझे तो छात्रावास में ही रहना पड़ता था । बरामदों की सीढ़ियों पर बैठे बैठे , आसमान में बादलों के रंग बदलते देखता रहता था और अपनी उंगलियाँ चलाता रहता था । विश्वास कीजिये , बाएं हाथ की उँगलियों के ऊपरी हिस्से चोटिल हो जाते थे । मुझे संगीत से प्यार था और प्यार में दर्द की कोई हैसियत नहीं होती । ईश्वर का आशीर्वाद मिला , उंगलियाँ अभ्यस्त होने लगीं और 1971 तक मैं ठीक ठाक मैन्डोलिन बजाने लगा ।

दिसंबर के आसपास इच्छा हुई कि क्यूँ न एक कव्वाली की धुन बनायी जाय और उसे सोशल फंक्शन में पेश किया । यूँ ही शब्द लिख लिए " कर के उनसे उम्मीदे करम , टूटे हैं अपने सारे भरम "। उसी वर्ष नवागंतुकों में एक विद्यार्थी प्रदीप कुमार बहुत अच्छा गाता था । सच कहिये तो उतना सुरीला गाने वाला उसके बाद कभी कोई छात्रावास में नहीं आया । मैंने उसको धुन सिखाई , और कुछ और साथियों को लेकर रिहर्सल प्रारम्भ कर दिए । कुछ लोगों ने प्रारम्भ में हतोत्साहित भी किया कि " इसमें वो बात नहीं है "। मैंने हिम्मत नहीं छोडी और उनकी कही गयी " वो बात " ढूँढने लगा । बीच बीच में ग़ालिब के शेर डाले और अंततः कव्वाली स्टेज हुई । ढोलक और हारमोनियम पर रेडियो के कलाकार तथा मैन्डोलिन पर मैं स्वयं था । लोगों ने सुना तो उछल पड़े । ज़बरदस्त तारीफ हुई ।

मेरे लिए ये एक नए युग की शुरुआत थी । तब से आज के दिन तक छात्रावास के सोशल फंक्शन का यह अपरिहार्य अंग बन गयी । अब तक अनेकों कव्वालियों की धुनें बना कर उन्हें छात्रावास के मंच पर पेश किया हैं । अधिकतर सूफी अंग रहता है , कभी भी एक भी सस्ता शेर कव्वाली का हिस्सा नहीं बना और यह सिलसिला अभी तक जारी है । मुख्य गायकों में प्रदीप कुमार , दिनेश गोस्वामी , देवराज त्रिपाठी , गिरिजेश सिंह , अनूप सिंह ,उदयन और अवनीश सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं ।

म्योर के वे दिन ....(10)

म्योर के वे दिन ....(10)
1968 में छात्रावास के सामान्य सचिव का चुनाव जीतने के बाद मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया था , इसलिए 1970 में सांस्कृतिक सचिव का चुनाव लड़ने का साहस जुटा लिया । अब तो वह वर्गीकरण लगभग समाप्त सा हो गया है परन्तु उस समय ऐ सी , डी सी का भेद चलता था । ऐ--> अमेरिकन , डी--> देशी । आगे आप समझें । मैं तो गर्व से कहता हूँ कि मैं डी सी था और हूँ । मेरे प्रतिद्वंदी आनंद कुमार पांड्या थे , जो बाद में चलकर आई ऐ एस हुए । प्रतिद्वंदी पक्ष के साथ मजबूत लोग थे , लोगों को उस समय की प्रचलित लम्बी सिगरेट विल्स फ़िल्टर आफर की जा रही थी और मेरे पास हाथ जोड़ने के सिवा कुछ भी नहीं था । चुनाव प्रक्रिया अति साधारण होती थी । अधीक्षक महोदय हर छात्रावासी को एक पर्ची देते थे और उस पर अपने पसंदीदा प्रत्याशी का नाम लिखना होता था । मेरे एक मित्र श्री हरिश्चंद्र गुप्ता ने आनंद पांड्या से नाम लिखने के लिए पैन माँगा और उन्होंने वोट पाने की आशा में पैन दे भी दिया | मजेदार बात देखिये कि गुप्ता जी ने उन्ही के सामने उन्ही के पैन से मेरा नाम लिख दिया । आनंद का खिसिया जाना लाजिमी था , बोले " अबे यार पैन हमारा और नाम एम सी का "। गुप्ता जी मुस्कुरा कर चलते बने। करीब आधे घंटे बाद मत गणना हुई । तकरीबन 100 वोट पड़े और में 12 वोट से विजयी हुआ । जीतने के बाद सबसे पहले आनंद से ही मिला और कहा कि तुम्हारे सहयोग के बिना मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा , और सच में उन्होंने बहुत सहयोग किया । हरिश्चंद्र गुप्ता जी की आई ऐ एस (प्रॉपर ) में छठी रेंक आयी और उन्हें यूं पी काडर मिला ।
मैं यहाँ पर यह अवश्य कहना चाहूँगा कि उस समय जब कि पूरे देश से लगभग प्रतिवर्ष 150 तक आई ऐ एस का चयन होता था , उसमें से लगभग 10 अमर नाथ झा छात्रावास से होते थे और रेंक 1 से लेकर 20 के बीच में । मैं तो फिजिक्स से था , मगर मुझे भी भारतीय संविधान , इतिहास इत्यादि का खासा ज्ञान बरामदों में टहलते घूमते हो गया था , क्यूंकि यह सब उस समय दीवालों पर लिखा रहता था ।

Tuesday, 1 January 2013

मुझसे वादा करो


अपने आँचल के  उजालों की हिफ़ाज़त  के लिए
इन अंधेरों की फितरत को भी समझा करो

मैं मानता हूँ तुम्ही से है वादियों की रौनक
वक़्त बेवक्त बियाबानों में मत निकला करो

खुले बदन की नुमाइश भी ज़रूरी तो नहीं
कौन कहता है कि तुम हमसे अब परदा करो

तुम जियोगे लड़ोगे और सबसे जीतोगे
मेरे जिगर के ऐ टुकड़े ये मुझसे वादा करो