Thursday 1 December 2011

वो रात ज़लज़ले की

अब  जिल्द चढ़ चुकी है  क़िताबे ज़िंदगी पे
हम पीछे देखते हैं पन्ने पलट पलट के
दरिया ने कहाँ रोका था मिलने के रास्तों को
क्यूँ मिल न सके हम तुम जब दोनों एक तरफ़ थे

तुम मुझ पे लगाते हो तोहमत क्यूँ सरे महफ़िल
क्या मैं ही सब ग़लत था या तुम भी कुछ ग़लत थे

थी इंतिहा ऐ उल्फ़त वो रात ज़लज़ले की
सब लोग मर चुके हैं हम इससे बेख़बर थे 
मत छेड़ अब तू मुझसे  मेरी दास्ताने माज़ी
आ आ के सतायेंगे वो क़िस्से उम्र भर के
थोड़ी सी और मोहलत यारब मुझे भी दे दे   
करते हैं प्यार मुझसे कुछ लोग इस शहर के    
   
 


 

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