Friday 30 December 2011

शमा बुझती है




तेरे बुलाने पे आये थे तेरी बज़्म में हम
नहीं पसंद तुझे ग़र तो चलो चलते हैं

नहीं बजता है हर घड़ी  यहाँ  राग बहार
वक़्त के साथ ज़माने के सुर बदलते हैं

बंदिशें इतनी हैं दुनियाँ की फिर भी
राहे उल्फत
में  अरमान क्यूँ मचलते है



फितरतें हैं छिपीं शब के इन अंधेरों में
शमा बुझती है  बेशुमार  बदन  जलते  हैं



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