Tuesday 29 November 2011

महमान इस ज़मीन के

महमान इस ज़मीन के  वापस चले गए
सामान तो
बहुत था पर  कुछ न ले गए
वीरान न हो जाए कहीं शहर ऐ मोहब्बत
दिल में हज़ारों दर्द बसा कर  चले गए
बंदगी का मिल ही गया हमको ये  सिला      
उनके  हमारे  दरमियाँ  थे  फासले गए 
मेरा वफ़ा की बात तो उनको न रही याद
औरों की   दास्तान  सुनाते  चले गए

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