Thursday 17 November 2011

बुरी है रोशनी भी

क्यूँ है इलज़ाम हवा पे कि वो बहती क्यूँ है
यहाँ हर कोई बहता है समय भी आदमी भी

पर्दा गिरता है एक मुख़्तसर किरदार के बाद
यहाँ हर चीज़ बुझती है शमा भी ज़िंदगी भी

जो है हर वक़्त रूबरू उसकी क़ीमत क्या है
चला जाये कोई आके तो खलती है कमी भी

ज़रूरत है चराग़ों की अगर घर में अँधेरा है
जो सोने भी न दे हमको बुरी है रोशनी भी

फ़र्क़ कुछ तो रहे पत्थर में और एक आदमी में
बची रहने दे इन आँखों में थोड़ी सी नमी भी

मेरा हक़ ही नहीं है चाहने की आरज़ू पर
ये है जो प्यार मेरा है मेरी एक बेबसी भी

 
 

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