Sunday 6 November 2011

मजबूर की आहें

मानिन्दे झील   गहरी   बेबाक   निगाहें
है कैसे भला  मुमकिन  हम उनको न चाहें

ख़त में तो लिख के भेज दिया है उन्हें सलाम
ये उनका फ़ैसला है उसे कितना सराहें

दरिया का नज़रिया है करता है कितनी क़द्र
साहिल  के पत्थरों ने तो फैला दीं है बाहें

है सब को इंतज़ार कि कब उनके  लब हिलें
किसको सुनाई देती हैं मजबूर की आहें

हमने तो उम्र भर निभाई है वफ़ा की रस्म
मंज़ूर है हमको वो   इसे जितना  निबाहें

हम जिस तरफ़ गए  हैं मिले लोग अजनबी 
तेरे दर पे जो पहुंचा सकें मिलती नहीं राहें

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