Saturday 5 November 2011

तिलस्मी शीशा

बेरहम वक़्त तिलस्मी शीशा
कितने जादू हमें दिखाता है
जितना झुक झुक के झाँकता हूँ मैं
मेरा चेहरा ही बदल जाता है

वो देखो दूर एक नन्हा बच्चा
उसके कंधे पे लटकता बस्ता

बंद है जिसमें उसकी माँ का प्यार
एक पराठा और थोड़ा सा अचार


ऐसा लगता है इसे मैं जानता हूँ
कुछ तो इसको भी मैं पहचानता हूँ

ये लो शीशे ने फिर दिया धोखा
ये कोई और नहीं मैं ही था


थोड़ा सा और जब चलूँगा मैं
इसका दस्तूर बदल जाएगा

ये आईना तो रहेगा अपनी जगह
मेरा चेहरा न नज़र आएगा

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