Tuesday, 29 November 2011

महमान इस ज़मीन के

महमान इस ज़मीन के  वापस चले गए
सामान तो
बहुत था पर  कुछ न ले गए
वीरान न हो जाए कहीं शहर ऐ मोहब्बत
दिल में हज़ारों दर्द बसा कर  चले गए
बंदगी का मिल ही गया हमको ये  सिला      
उनके  हमारे  दरमियाँ  थे  फासले गए 
मेरा वफ़ा की बात तो उनको न रही याद
औरों की   दास्तान  सुनाते  चले गए

ज़ंजीरें पिघलती हैं


कभी तुम थे अभी मैं हूँ  कोई कल और यहाँ होगा
समय एक आईना  है जिसमें तस्वीरें बदलती हैं

ज़रा सी पी के दीवाने क्यूँ तू इतना बहकता है
सितारे थोडा सा बहकें  तो तक़दीरें बदलती है

सफ़र में ज़िंदगी के  गर जो  कितना भी
अँधेरा हो 
तेरे कामों की परछाईं हमेशा साथ चलती हैं

तुझे क्यूँ खौफ है इतना क़फ़स के सख्त पहरों से
ज़माना करवटें बदले तो ज़ंजीरें पिघलती हैं

Monday, 28 November 2011

वक़्त मुझसे जीत गया

उम्र भर कल कभी नहीं आया
कोई उसे लाओ

लमहे बीते या मैं ही बीत गया
मुझे समझाओ

मैं जिया वक़्त मुझसे जीत गया
क्यूँ हुआ बतलाओ

दर्द सीने में बन गया पत्थर
इसे पिघलाओ

और क्या होना है मुक़द्दर में
तुम  देखते जाओ

Sunday, 27 November 2011

रोशनी बन के चले जाओ

अपने पैरों की ही हिम्मत पे भरोसा रक्खो
कोई सहारे नहीं बनते खाक़सारों के 
अपने रुखसारों की सुर्ख़ी को सम्हाले रखना
इन्हें चुरा के न ले जाएं दिन बहारों के
शमा की ज़िंदगी कितनी है ये है किसको पता
रोशनी बन के चले जाओ बिन सहारों के

मरहले दूर बनाती हैं क़श्तीयाँ भी अलग
नहीं  हैं  साथ कोई ,  डूबते किनारों के

Saturday, 26 November 2011

ये राज़े कायनात

हम कैसे छोड़ पायेंगे आसानी से दुनियाँ
पैरों में जो बंधी हैं मोहब्बत की बेड़ियाँ
राहे अदम को रोके खड़ी है तेरी तस्वीर
अब जाना भी उस पार है एक बड़ा इम्तिहां
किसकी समझ में आये हैं ये राज़े कायनात
हम आते हैं कहाँ से लौट जाते हैं कहाँ
होती जो पास मंज़िल तो हौसला होता
है दूर भी बहुत तेरी ज़मीं से आसमाँ

मुश्किल से सुलझते हैं एक घर के मसाइल
रब कैसे चलाता है एक साथ दो जहाँ

Friday, 25 November 2011

ये उम्र बड़ी है

इन हवाओं को गीत गाने दो,
खिली है धूप मुस्कराने दो
रोने के लिए हमको सारी रात पड़ी है

लफ़्ज़ कल का बस एक धोखा है
जो भी होता है आज होता है
जीना जो अगर आये तो ये उम्र बड़ी है

मेरे ये पैर क्यूँ नहीं रुकते
टूटे शीशे भी क्यूँ नहीं चुभते
लगता है जैसे अब तेरे आने की घड़ी है

रूह तरसेगी  अभी  मत जाओ
आँख बरसेगी कुछ ठहर जाओ
क्यूँ  तुम को लौट कर के  जाने की पडी है

Wednesday, 23 November 2011

अगर बचना न हो


एक काफिला चला है  समंदर में डूबने
ग़ौर से देख लो उसमें कोई अपना न हो
गले लिपट के रो लेना  इस बार सभी से
शायद  तुम्हारा  इस तरफ आना न हो

तमन्ना मौत की जेबों में रहे अच्छा है    
खिडकीयां  खोलना  अगर बचना न हो 
मैंने देखा है दरख्तों  पे लटकी हैं रोटियाँ
मैं चाहता हूँ ये सच हो कोई सपना न हो



तू भी आदम है

समय की आग में हर चीज़ यहाँ जलती है
ख़ाक उड़ती है हवाओं का खिलौना बन कर

ये जागीरें उधार उसकी हैं कुछ दिन के लिए
ज़रा सी देर में रह जायेंगी सपना बन कर

बना के रख ज़मीन पर अपने पैरों की पकड़
रुख़ ये मौसम का बदल जाए न तूफाँ बनकर

मत समझ खुद को फ़रिश्ता कि तू भी आदम है
कभी तो लग जा गले हमसे भी इंसां बन कर

Tuesday, 22 November 2011

नयनों का खारा जल

पाहन बैठे हैं आस लगा , पूछा करते हैं पल प्रति पल
कब अधर हमारे भीगेंगे , नदिया कहती जाती 'कल कल'

क्या करें शिकायत हम तुमसे आवारा सर्द हवाओं की
हमने तो हाथ बढ़ाये थे , ले गयीं छीन तेरा आँचल
 
है शिल्पकार अन्याय तेरा , जीवन में गहरे घाव दिए
फिर उनकी पीड़ा सहने को , क्यूँ हृदय दिया इतना कोमल

मैं रूप तुम्हारा क्यों देखूं , मैं अपनी प्यास बुझा लूँगा
मेरे प्याले में भर देना अपने नयनों का खारा जल

कल ये होगा कल वो होगा , यदि ये न हुआ तो क्या होगा
मत इतना गणित लगाओ तुम, कुल जीवन है केवल दो पल
 

Monday, 21 November 2011

वो पहली मुलाक़ात

कुछ  लोग सोचते थे  उनसे जहान है 
ना जाने कहाँ खो गए मालूम नहीं
जिनके भी हक़ में आया है ये रैन बसेरा
क्यूँ सब दीवाने हो गए मालूम नहीं 

बादल तो आये थे बिना बरसे चले गए
पलकों को कब भिगो गए मालूम नहीं

भूखी ज़मीन रात भर जगती है किस लिए
जब आसमान सो गए  मालूम नहीं
वो पहली मुलाक़ात मुझे याद है मगर
हम कब तुम्हारे हो गए मालूम नहीं
 
 

Saturday, 19 November 2011

गुलशन अभी बर्बाद नहीं


जब तक खुली हैं आँख तभी तक है ज़माना
गर मैं नहीं तो कुछ भी मेरे बाद नहीं है
बीता हुआ सफ़र है  एक ख्व़ाब की तरह
जो भी है याद ठीक से कुछ याद नहीं है
ख़ारों की क़तारों में हैं पोशीदा कुछ गुलाब
गर्दिश में है गुलशन अभी बर्बाद नहीं है
सदियों से यहाँ लोग तो आयें  हैं  मुसलसल
फिर भी न जाने क्यूँ ये घर आबाद नहीं है

अपनी हद में ही तैर  प्यार के समंदर में
कितना गहरा है कहाँ तुझको ये अंदाज़ नहीं है


 


 






Friday, 18 November 2011

सभी राज़ ले गए

वो मांगते हैं वापस  अपनी  अमानतें
कुछ पहले ले गए थे कुछ आज ले गए
जब से चलीं चमन में ये खुश्क हवाएं
पत्ते उड़े शाखों के सभी राज़ ले गए

मैं किस तरह पुकारता जाते हुए उन्हें
रुखसत हुए तो शिद्दते आवाज़ ले गए
नादान  था बचा न सका राज़ों की दौलत
जितने थे राज़ दिल में वो हमराज़ ले गए




Thursday, 17 November 2011

बुरी है रोशनी भी

क्यूँ है इलज़ाम हवा पे कि वो बहती क्यूँ है
यहाँ हर कोई बहता है समय भी आदमी भी

पर्दा गिरता है एक मुख़्तसर किरदार के बाद
यहाँ हर चीज़ बुझती है शमा भी ज़िंदगी भी

जो है हर वक़्त रूबरू उसकी क़ीमत क्या है
चला जाये कोई आके तो खलती है कमी भी

ज़रूरत है चराग़ों की अगर घर में अँधेरा है
जो सोने भी न दे हमको बुरी है रोशनी भी

फ़र्क़ कुछ तो रहे पत्थर में और एक आदमी में
बची रहने दे इन आँखों में थोड़ी सी नमी भी

मेरा हक़ ही नहीं है चाहने की आरज़ू पर
ये है जो प्यार मेरा है मेरी एक बेबसी भी

 
 

Wednesday, 16 November 2011

शब की तारीकी

बाद मुद्दत के मिला तेरा दर
अब ये कहते हो लौट जाएँ हम

ग़म छिपाना हमें नहीं आता
न करो ज़िद कि मुस्कुराएँ हम

और हर बात मान लूँगा मै
मत कहो तुमको भूल जाएं हम
बढ़ती जाती है शब की तारीकी
कितना अब और दिल जलाएं हम
कोई भूले से भी अपना न हुआ
और अब किसको आज़माएँ हम

जी चुके उम्र तेरी दुनियां में
अब कहाँ आशियाँ बनाएं हम 

 
 

Monday, 14 November 2011

इस बहते पानी में

छिपी है दास्ताँ दुनिया से , पर ये भी हक़ीक़त है
मेरी बरबादियों का ज़िक्र है तेरी कहानी में

न जाने लोग कितने रंग चेहरों पर लगाते हैं
सभी घुल घुल के बह जाते हैं उल्फत की रवानी में

ज़रा रफ़्तार कम कर ले तू इन अश्क़ों के दरिया की
नज़र आती नहीं  सूरत तेरी इस  बहते पानी में

हम मांगे  किस तरह तुमसे  कोई एक और नया तोहफ़ा

कि तुमने ग़म दिए इतने मोहब्बत की निशानी में  

Saturday, 12 November 2011

मैं तुम्हे देखा करूँ

जानते   हैं लोग मुझको सब   तुम्हारे  नाम से
और ज़्यादा  खुद को मैं अब किस तरह रुसवा करूँ

ये तुम्हारी  बेरुख़ी  है   और  है    मेरी बेबसी   
तुम   उधर  देखा करो  और मैं  तुम्हे देखा करूँ


प्यार दोनों ने किया है फिर नतीजे क्यूँ अलग

तुम सरे महफ़िल हंसो और तनहा मैं रोया करूँ

मेरा तुमको चाहना  शायद ग़लत था फैसला

मैं किसे चाहूँ ये क्या वाइज़ से मैं पूछा करूँ ?



Friday, 11 November 2011

रब से मिला दे

एक बार कभी मुझको अपने  रब से मिला दे
वो कौन हैं कहाँ है मुझे उसका पता दे

जब दोनों में से कोई उसे जानता नहीं
हम किस पे झगड़ते हैं मुझे इतना बता दे

है हक़ सभी को जीने का ये मेरा सोच है
इस बात की तू चाहे मुझे जितनी सज़ा दे

मैंने तो सारी उम्र की है तुझसे रफ़ाक़त
ये तेरा है ईमान मोहब्बत कर या दग़ा दे 
ये होश  ही तो है सभी दर्दों का समंदर
फिर होश न आये मुझे तू ऐसी पिला दे 

 

Monday, 7 November 2011

तू मुझको जीने दे


अगर   बुझ जाए पूरी तिश्नगी तेरे लबों की
जो बचती है पियाले में मुझे दो घूँट पीने दे

यही मज़हब है मेरा और यही ईमान है मेरा
उधर मैं तुझको जीने दूँ इधर तू मुझको  जीने दे

मेरा भी कुछ तो हक़ है इन बदलते मौसमों पर
झुलसते इस बदन को थोड़े  सावन के महीने दे

सुना है कल मदरसे में मनेगा  जश्ने आज़ादी
न हो तौहीन जलसे में ,  फटी पोशाक सीने दे

है क्यूँ इंसान आमादा तेरी दुनियाँ मिटाने को 
उसे जब ज़िंदगी दी है तो जीने  के क़रीने दे   

Sunday, 6 November 2011

मजबूर की आहें

मानिन्दे झील   गहरी   बेबाक   निगाहें
है कैसे भला  मुमकिन  हम उनको न चाहें

ख़त में तो लिख के भेज दिया है उन्हें सलाम
ये उनका फ़ैसला है उसे कितना सराहें

दरिया का नज़रिया है करता है कितनी क़द्र
साहिल  के पत्थरों ने तो फैला दीं है बाहें

है सब को इंतज़ार कि कब उनके  लब हिलें
किसको सुनाई देती हैं मजबूर की आहें

हमने तो उम्र भर निभाई है वफ़ा की रस्म
मंज़ूर है हमको वो   इसे जितना  निबाहें

हम जिस तरफ़ गए  हैं मिले लोग अजनबी 
तेरे दर पे जो पहुंचा सकें मिलती नहीं राहें

Saturday, 5 November 2011

तिलस्मी शीशा

बेरहम वक़्त तिलस्मी शीशा
कितने जादू हमें दिखाता है
जितना झुक झुक के झाँकता हूँ मैं
मेरा चेहरा ही बदल जाता है

वो देखो दूर एक नन्हा बच्चा
उसके कंधे पे लटकता बस्ता

बंद है जिसमें उसकी माँ का प्यार
एक पराठा और थोड़ा सा अचार


ऐसा लगता है इसे मैं जानता हूँ
कुछ तो इसको भी मैं पहचानता हूँ

ये लो शीशे ने फिर दिया धोखा
ये कोई और नहीं मैं ही था


थोड़ा सा और जब चलूँगा मैं
इसका दस्तूर बदल जाएगा

ये आईना तो रहेगा अपनी जगह
मेरा चेहरा न नज़र आएगा

Friday, 4 November 2011

ढूँढता हूँ वो ही ख़लिश


इस क़दर गर्द से भरी  है माज़ी की क़िताब
इसके पन्नों  को पलटने में भी डर लगता है

कोई ले ले जो तेरा नाम  तो भर आता है जी
दिल पे  अब भी तेरी चाहत का असर लगता है

दो चार  दिन में उतरता नहीं उल्फ़त का नशा
गर जो एक बार हुआ सारी उमर लगता है

हर एक ज़ख्म  में अब ढूँढता हूँ वो ही ख़लिश
दर्द हो सर में भी तो दर्दे जिगर लगता है

पहले रहते थे यहाँ थोड़े बहुत मोहसिन भी
जैसे मक़तल हो शरीफों का, ये शहर लगता है



Tuesday, 1 November 2011

मोहब्बत की तपिश


तुम्हे जो चाहिए कह दो   निकाल कर देंगे दिल से
मांग लो हमसे तुम कुछ भी बस एक अपने सिवा

बड़ी मुश्किल से   कम हुई है मोहब्बत की तपिश
क़मसकम तुम तो न दो फिर बुझी आतिश को हवा

बद दुआ देके  किसी और को  मिलती होगी   राहत
हम फ़क़ीरों की  ज़बां   से  तो   निकलती है दुआ

कुछ तो हमको भी बता दे  कि कहाँ  है तेरा दर
पूछा करती है हर एक  सुबहा   सबा तेरा पता