Monday 1 August 2011

है बे आबरू ये रूप

 छिप गया  सूरज तो देखो रो पडी है धूप
ढल गयी  है उम्र अब बे आबरू है रूप

बेरहम  है  वक़्त की चलती  हवा
किसका  दामन भीग जाए क्या पता

ऐसा ही होता है हर एक मर्तबा
ज़िंदगी देती है क्यूँ ऐसी सज़ा

दरमियाँ है नींद का लम्बा सफ़र
कल खुली जो आँख तो होगी सहर

कैसे कर दूँ मैं ये वादा शाम से
जश्न कल होगा मेरे ही नाम से


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