Sunday 3 July 2011

फिर भी गाता हूँ राष्ट्र गीत

डूबीं सैलाब में कुछ बस्तियां तो क्या ग़म है
हाकिमे शहर का घर तो सही सलामत है
पिछले हफ्ते ही तो डाले थे निवाले तुमको
चार दिन भूखे भी रह लोगे तो क्या आफ़त है
चंद लोगों में ही बँट जाय  वतन की दौलत
तुम्ही समझाओ कि ये कौन सी सियासत है

कि  खड़ा हो  सकूँ  पैरों में वो ताकत ही नहीं 
फिर भी गाता हूँ राष्ट्र गीत ये मेरी हिम्मत है


मैं जो मर जाऊँगा तो फिर तू भी जियेगा कैसे
मेरी ग़ुरबत मेरी मजबूरी  तेरी ताक़त है

जिस हुक़ूमत में नहीं मिलते क़फ़न मुर्दों को
मेरे बदन पे हैं कुछ कपडे बहुत  ग़नीमत है





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