Monday, 31 October 2011
Sunday, 30 October 2011
तेरे एतबार पर
एक दिन उड़ेंगे पत्ते ये शाख होगी खाली
तेरा इस क़दर भरोसा आयी बहार पर
सच जानता हूँ फिर भी ये मेरी बेबसी है
मुझे एतबार क्यूँ है तेरे एतबार पर
शायद उस ज़लज़ले में ज़िंदा बचा हो कोई
हैं लोग अभी ज़िंदा इसी इंतज़ार पर
फूलों की महक जैसे एक ख्वाब बन गयी है
साँसों का हक़ बचा है गर्द ओ ग़ुबार पर
तेरा इस क़दर भरोसा आयी बहार पर
सच जानता हूँ फिर भी ये मेरी बेबसी है
मुझे एतबार क्यूँ है तेरे एतबार पर
शायद उस ज़लज़ले में ज़िंदा बचा हो कोई
हैं लोग अभी ज़िंदा इसी इंतज़ार पर
फूलों की महक जैसे एक ख्वाब बन गयी है
साँसों का हक़ बचा है गर्द ओ ग़ुबार पर
Saturday, 29 October 2011
चलता ये कारवाँ
कितना ग़ाफ़िल है आदमी जो ये सोचता है
दिखाई देती है जितनी है बस यही दुनियां
तेरे हिस्से में तो आये गिने चुने लमहे
हैं इस ज़मीन के नीचे दबी हुईं सदियाँ
छोटी चादर है तो फिर पैर न फैला इतने
ज़रा सी ज़िंदगी के वास्ते कितने अरमां
हर एक पल है यहाँ नए इम्तहाँ की तरह
न जाने कब कहाँ रुक जाए चलता ये कारवां
Thursday, 27 October 2011
आने का बहाना
है तुमको ग़र पसंद तमाशा ऐ आतिशी
लो हमने अपने दिल में ख़ुद ही आग लगा ली
कोई तो बने आपके आने का बहाना
हम रोज़ मनाया करेंगे जश्ने दिवाली
पीने को रह गया है बस एक आँख का पानी
कैसे हो मै मयस्सर जब जेब हो ख़ाली
हमको न चैन आएगा न ख्व़ाब आयेंगे
तुमने हमारी उम्र भर की नींद चुरा ली
Friday, 21 October 2011
रिश्तों के फूल
गुलदस्ते में थे रिश्तों के फूल
वो भी मुरझा गए हैं रात भर में
बचा के रखना अपने अश्क़ों को
बहुत महंगा है पानी इस शहर में
तमाम उम्र वफ़ाओं का सिलसिला
बस एक दीवानगी तेरी नज़र में
दूर मिलते हैं ज़मीं आसमां भी
तुम से हम क्यूँ न मिले उम्र भर में
है अच्छा दौर तो सब अपने हैं
है अपना कौन एक मुश्किल सफ़र में
न कोई शाख न पत्ते और उजड़ा बदन
कैसे आयेंगे अब फूल इस शजर में
Monday, 17 October 2011
मेरी तक़दीर है
दिले हिन्दोस्तां,हम सब की ये जागीर है
अदब से नाम लो इसका कि ये कश्मीर है
मोहब्बत के फ़रिश्तों ने बनाया है जिसे
मेरे महबूब की एक शोख़ सी तस्वीर है
छोड़ के साथ भला तुम कहाँ जाओगे
पड़ी पैरों में उल्फत की बड़ी ज़ंजीर है
मेहंदी से ढक गयीं हैं हाथों की लक़ीरें
तेरी तक़दीर में पिनहाँ मेरी तक़दीर है
Thursday, 13 October 2011
ढूंढते फिरते हैं रब को
सुकूं मिलना बहुत आसाँ नहीं होता
वक़्त हर वक़्त मेहरबां नहीं होता
जी में आये वो हो सके मुमकिन
कहीं होगा मगर यहाँ नहीं होता
क्या बताएं तेरे तीरों का असर
कहाँ होता है और कहाँ नहीं होता
सुनाएँ कैसे दास्ताँ दिल की
हमसे तो दर्द भी बयाँ नहीं होता
एक चिनगारी जलाती है शहर
जले जो दिल धुंआ नहीं होता
ढूंढते फिरते हैं रब को जहाँ में लोग
तलाशते हैं वहां वो जहां नहीं होता
Wednesday, 12 October 2011
गुनाह के प्याले
न वो चाहत न चाहने वाले
कहाँ हैं अब सराहने वाले
जिनको छूने से भी होती है चुभन
हमने ऐसे ही ज़ख्म क्यूँ पाले
मुआफ है गाली ज़ालिम की
शरीफ़ों की ज़बान पर ताले
बिखर गयी है शराफ़त की शराब
भर गए हैं गुनाह के प्याले
हमने मांगी थी एक निगाहे करम
दर्द क्यूँ तूने इतने दे डाले
तू जो कहता है दिखाओ मर के
अब तेरी ज़िद कोई कैसे टाले
Tuesday, 11 October 2011
बुझ गए हैं चिराग़
रोते लोगों की क़तारें खड़ी हैं मेरे दरवाजे पे
क्या कोई आसमानी रूह थक कर सो गई है
उल्फ़त के मजारों पे बुझ गए हैं चराग़
शबे महताब है पर रोशनी कम हो गयी है
...
जाने वाले से मेरा कोई भी रिश्ता न था
फिर भी क्यूँ ये आँख पुरनम हो गई है
दिल में बसती थी एक मखमली आवाज
ऐसा लगता है कि अब वो भी मद्धम हो गई है
Friday, 7 October 2011
पी तू शराबे इश्क़
करते हो अगर प्यार तो इज़हार भी करना
कुछ भी नहीं हासिल यूँ ही घुट घुट के जीने में
ये दर्द अगर रो के निकल जाए सही है
ग़र रह गया बन जायेंगे नासूर सीने में
पी तू शराबे इश्क़ कि मयखाना दहल जाए
है क्या मज़ा प्याले से बस दो घूँट पीने में
ये दिल है मेरा बारहा तोड़ा गया शीशा
कट जायेगी उंगली तेरी टुकड़ों को छूने में
Thursday, 6 October 2011
मर जायगा रावण तभी
मरता है केवल आदमी ,मरता नहीं रावण कभी
पत्थर के दिल जलते नहीं ,जलता है एक बेबस का जी
इतने बरसों से जलाते आ रहे हैं जिसको हम
जिस्म बस जलता है उसका रूह ज़िंदा है अभी
भूख से बदहाल रामू किस क़दर माज़ूर है
राम घर आ जायेंगे रामू को दे दो ज़िंदगी
भुखमरी को जीत लो तुम जीत होगी राम की
सच की चादर ओढ़ लो मर पायगा रावण तभी
भूख से बदहाल रामू किस क़दर माज़ूर है
राम घर आ जायेंगे रामू को दे दो ज़िंदगी
भुखमरी को जीत लो तुम जीत होगी राम की
सच की चादर ओढ़ लो मर पायगा रावण तभी
Monday, 3 October 2011
एक तेरी जुस्तजू में
रंगीनियाँ होती हैं बस ख़्वाबों की महफ़िल में
है ज़िंदगी हक़ीक़त एक उलझा रास्ता है
होती नहीं है जिसको दो गज़ ज़मीन हासिल
वो आसमां में अपना एक घर तलाशता है
रखते हैं हमको जिंदा पलकों में सजे सपने
परियों के फ़सानों का बचपन से वास्ता है
थक कर के सो गए हैं सब साथ के मुसाफ़िर
एक तेरी जुस्तजू में क्यूँ दिल ये जागता है
Saturday, 1 October 2011
बदल जायेंगे तेवर
पैरों में बेडी बाँध के कहते हैं नाचिये
कैसे अजीब हो गए हैं आज हुक्मरान
झपकाओगे पलकें तो बदल जायेंगे तेवर
ख़ंजर छुपाये बैठे हैं ये सारे क़द्रदान
जाकर नए बाज़ारों में नफ़रत खरीदिये
अब बंद हो चुकी हैं मोहब्बत की सब दुकान
बस बोरिया बिस्तर ही उठाने की देर है
पहले ही बिक चुका है घर का सभी सामान
कैसे अजीब हो गए हैं आज हुक्मरान
झपकाओगे पलकें तो बदल जायेंगे तेवर
ख़ंजर छुपाये बैठे हैं ये सारे क़द्रदान
जाकर नए बाज़ारों में नफ़रत खरीदिये
अब बंद हो चुकी हैं मोहब्बत की सब दुकान
बस बोरिया बिस्तर ही उठाने की देर है
पहले ही बिक चुका है घर का सभी सामान
गो भर चुकी क़िताबे दिल
क़ासिद से हम भी करते रहे बेवजह बहस
तेरी तरफ़ से आया था कोई भी ख़त नहीं
निकला हूँ हो के रुसवा तेरी बज़्म से हर बार
दिल से तुझे निकाल दूं , ऐसी सिफ़त नहीं
बचने के आफ़ताब से साये तो हैं बहुत
नफ़रत की आग रोकती कोई भी छत नहीं
गो भर गए क़िताबे दिल में जाने कितने हर्फ़
एक तेरे नाम का कोई भी दस्तख़त नहीं
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