अगले बरस ऐ सावन जब लौट के आना
एक दिन के लिए लाना वो गुज़रा ज़माना
बदली सी घिरी आँख में और भीगी निगाहें
तेरा यूँ ही मचलना और मेरा मनाना
कितनी ही कश्तियों को साहिल नहीं मिले
ग़र्दिश भी ढूंढ लेती है कोई झूठा बहाना
जागा हूँ सारी रात अब है आख़िरी पहर
लग जाए मेरी आँख मुझे तुम न जगाना
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