चढ़ता सैलाब जिन्हें दूर किया करता है
क़श्तियाँ जोड़ती आयी हैं उन किनारों को
सभी ने रस्म निभायी है मुरझाने की
गुलों का क़र्ज़ चुकाना है इन बहारों को
ढलता सूरज हूँ प्यार न कर मुझसे ऐ शाम
कोई आवाज़ नहीं देता टूटे तारों को
रोते हैं सर छिपा कर के अपने दामन में
कोई कंधा नहीं देता है ग़म के मारों को
क़श्तियाँ जोड़ती आयी हैं उन किनारों को
सभी ने रस्म निभायी है मुरझाने की
गुलों का क़र्ज़ चुकाना है इन बहारों को
ढलता सूरज हूँ प्यार न कर मुझसे ऐ शाम
कोई आवाज़ नहीं देता टूटे तारों को
रोते हैं सर छिपा कर के अपने दामन में
कोई कंधा नहीं देता है ग़म के मारों को
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