ढल रही है शाम थक कर बुझ गया सारा शहर
अब नहीं लगता है जैसे अब भी कुछ होने को है
करते हैं महफ़िल तेरी तेरे हवाले ऐ ज़मीं
आख़िरी ये मरहले और ज़िंदगी सोने को है
रंग जितने पत्तियों में भर सकी वो भर चुकी
शाख़ की किस्मत में बाकी क्या सिवा रोने को है
चाँद को सौंपेंगे जो उससे मिली थी चांदनी
साथ लाये थे क्या हम , इस वक़्त जो खोने को है
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