इसी तरह हुआ है अक्सर
ज़रा से लोग लूटते हैं शहर
चेहरे इतने हैं बज़्म में फिर भी
वो नहीं जिसको ढूंढती है नज़र
...
जब से आये हो मेरी आँखों में
नींद आती नहीं है आठों पहर
हम तुझे भूल चुके हैं फिर भी
क्यूँ रुलाता है इतना दर्दे जिगर
ख़ुद को शीशे में देखता हूँ मैं
नज़र आता है क्यूँ तेरा पैकर
उधर होती है सियासत पे बहस
इधर जलता है एक ग़रीब का घर
मेरे आँगन में धूप बाकी है
अँधेरी रात मेरे घर न उतर
No comments:
Post a Comment