Sunday, 26 February 2012

इसी तरह हुआ है अक्सर

इसी तरह हुआ है अक्सर
ज़रा से लोग लूटते हैं शहर

चेहरे इतने हैं बज़्म में फिर भी
वो नहीं जिसको ढूंढती है नज़र
...
जब से आये हो मेरी आँखों में
नींद आती नहीं है आठों पहर

हम तुझे भूल चुके हैं फिर भी
क्यूँ रुलाता है इतना दर्दे जिगर

ख़ुद को शीशे में देखता हूँ मैं
नज़र आता है क्यूँ तेरा पैकर

उधर होती है सियासत पे बहस
इधर जलता है एक ग़रीब का घर

मेरे आँगन में धूप बाकी है
अँधेरी रात मेरे घर न उत
 

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