कहीं और जा बहती पवन, है बदला बदला सा चमन
बुझ गए अब सुर्ख़ चेहरे, खो गया है बांकपन
अब कहाँ झुकती निगाहें, लाज से दोहरे बदन
किस तरह लिक्खेगा कोई ,इन पे अब शेरो सुख़न
...
दस्तूर जीने के बदल डाले हैं बढ़ती ख्वाहिशों ने
रहते थे चिलमन में जो , हैं आज वो नंगे बदन
किसको कहें तन्हाई में मुझसे भी कुछ बातें करो
ये ज़मीं मसरूफ़ है और दूर है इतना गगन
एक खिलोने की खनक से चुप हुआ रोते हुए
उसको देखा तब हमें भी याद आया बालपन
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