यूँ ही बेहोश बना रहने दे साक़ी मुझको
होश आने से उमड़ता है दर्दों का समंदर
न होता होश तो फिर कैसे चाहता मैं तुझे
आग क्यूँ जलती भला मेरे जिगर के अंदर
ज़बां से कह न सका मैं कभी अपनी चाहत
गो कि वाकिफ़ था मेरे हाल से ये सारा शहर
दिलों में रोज़ ही बनते है कई ताजमहल
न जाने कब ख़ुदा हो जाए कौन सा पत्थर
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