गिरा कर सुर्ख़ गुंचों को, धरा की मांग भरते हैं
तो फिर माज़ी के पन्नों में , तेरी तस्वीर बनती है
मेरी पलकों की कोरों से , कई सावन गुज़रते हैं
वफ़ा की तंग गलियों में बड़ा वहशी अँधेरा है
कि उस बस्ती में जाने से अधिकतर लोग डरते हैं
तरक्क़ी के इन शोलों ने जला डाले सभी रिश्ते
हवस की बदहवासी में हम कुछ भी कर गुज़रते हैं
कोई जीने को मरता है कोई जीता है मरने को
है आखिर फ़ैसला रब का कि हम जीते या मरते हैं
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