नहीं मिलते उन सीढ़ियों के सुराग़
जो उतरतीं थी मेरे दिल में तेरे दिल से
है डूबना ही मुक़द्दर मेरे सफ़ीने का
दूर इतना चला आया हूँ मैं साहिल से
यूँ ही जलाए रहो दिल में मोहब्बत के चराग़
ये काली रात हैं बीतेगी बड़ी मुश्किल से
मेरे क़दमों में नहीं बाकी इतनी जुम्बिश
क्यूँ बुलाते हो मुझे दूर खड़े मंज़िल से
No comments:
Post a Comment