जो आया है वो जाएगा ,यही कहानी चलती आई
कितना भी श्रंगार करो तुम, होनी है एक रोज़ विदाई
जीवन की आपाधापी में ,जाने कितने लक्ष्य बनाते
बीन बजाती नियति सपेरन ,सारे अर्थ बदल जाते हैं
पहले जब छत पर चढ़ते थे , दिखता था वो गाँव तुम्हारा
हम तुम और बरखा की बूंदे ,बस इतना संसार हमारा
आज प्रगति की इस आंधी ने, की ऐसी दीवार खड़ी है
जाने पहचाने भी चेहरे, इसके पीछे छिप जाते हैं
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