दहकते चेहरे पे लिपटा भीगा आँचल जैसे
किसी बादल ने बिजली को छिपा रक्खा है
तेरे इनकार के डर से जिसे मैं दे न सका
ख़त वो इज़हार का कब से लिखा रक्खा है
न टूट जाए कहीं तेरे हसीं रिश्तों का घर
मैंने एक आग को सीने में दबा रक्खा है
तुझे चाहूँ तो ज़माने का क्या बिगड़ता है
दुनिया ने मुफ्त में तूफ़ान उठा रक्खा है
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