म्योर के वे दिन .....(8)
सन 1964 में
डा अमरनाथ झा छात्रावास में एम एस सी भौतिक शास्त्र के विद्यार्थी के रूप
में प्रवेश मिला । मार्च 1965 में परीक्षाएं प्रारभ हुईं । तैय्यारी अच्छी
थी । पहली परीक्षा की रात को अच्छी तरह विषय को दोहरा कर रात्रि में 9 बजे
ही बिस्तर पर लेट गया । सोचा यह था कि ठीक से लम्बी नींद लूँगा तो सुबह
मस्तिष्क तरो ताज़ा रहेगा । परन्तु ऊपर वाले की मर्जी कुछ और थी । गलती यह
हो गयी कि रात को खाने के स्थान पर एक दो
संतरे ही खाए थे और पिछले एक दो दिन से रात को ऐसे ही चल रहा था । अब
नींद आये भी तो कैसे । थोड़ी देर विषय को लेटे लेटे ही दोहराता रहा । देखते
देखते रात्रि के 12 बज गए । अब चिंता सताने लगी । उठ कर कोरिडोर में आठ दस
लगभग दौड़ने के बराबर चक्कर लगाए , यह सोच कर कि थकान से नीद आ जायेगी ।
परन्तु नींद एक दम गायब हो चुकी थी । 5 बजने वाले थे , आसमान में थोड़ी
रोशनी होने लगी थी । 7 बजे से परीक्षा थी । अब उठ कर तैयार होने के अलावा
कोई चारा नहीं था । सारी रात जागते जागते निकली थी । सब कुछ धुआं धुआं सा
लग रहा था । परीक्षा के लिए जाते समय विषय के बारे में नहीं सोच पा रहा था
, चिंता यह लगी थी की अब फेल हो जाऊँगा तो पिता जी इलाहाबाद पढने नहीं
भेजेंगे , कही अलीगढ या आगरा में पढ़ाएंगे । बुजुर्गों का आशीर्वाद और ईश्वर
की कृपा हुई कि पर्चा मिलते ही स्मरण शक्ति साथ दे गयी , प्रश्न हल होते
गए और परचा ख़ासा ठीक ठाक हो गया । छात्रावास लौटा तो अपनी ग़लती जान चुका
था । सीधे मेस में जा कर भर पेट खान खाया और उसके बाद पूरे तीन घंटे सोया ।
बाद के पर्चों की रात को खाना न खाने की ग़लती को नहीं दोहराया । पहले
पर्चे में 100 में से 85 तथा योग में 80 प्रतिशत अंक आये । थ्योरी के यह
अंक कई वर्षों तक रिकार्ड की तरह रहे ।
मेरी सभी
विद्यार्थियों को सलाह है कि इम्तिहान की रात को ज्यादा भोजन तो न करें ,
परन्तु खाली पेट न रहें वरना मेरी तरह मुसीबत में फस सकते हैं ।
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