म्योर के वे दिन ... (9)
विश्वविद्यालय में एम एस सी भौतिक शास्त्र में 1964 में प्रवेश हुआ और पहली
बार इलाहाबाद आया । एकदम अनजान शहर , उम्र 15 वर्ष 4 महीने, पास में एक
टीन का बक्सा, कुछ कपडे और जेब में गिने चुने पैसे । आर्थिक स्थिति बहुत
कमज़ोर थी । पिता जी चार साल पहले रिटायर हो चुके थे ।पैसे का एकमात्र सहारा
नेशनल छात्रवृति ।मूर्खता तो देखिये , सोचा था कि जो संस्था प्रवेश दे
रही है वह रहने का स्थान भी देगी । जब
पता पड़ा कि सारे छात्रावास भर चुके हैं ,मन एक दम निराश हो गया । किसी ने
बताया कि अमर नाथ झा छात्रावास यहाँ का सबसे प्रसिद्ध छात्रावास है ।
हिम्मत जुटा कर सायंकाल उसके अधीक्षक महोदय डा मुश्रान से मिलने गया । पहले
तो उन्होंने सीधे सीधे मना कर दिया , परन्तु जब मैंने अपनी मार्क शीट
दिखाई , 82% अंक थे तब थोडा सोचने के बाद बोले कि कल आकर फ़ार्म भरदो और फीस
जमा कर दो । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा ।रात प्रयाग स्टेशन पर बिताई ।
दूसरे दिन आ कर औपचारिकताएं पूरी कीं और एक डबल सीटेड कमरा आवंटित किया गया
। कामन हाल के सामने सज्जन खड़े थे , उनसे कमरे का स्थान पूछा था कि मुझसे
सीधे ही शुरू हो गए " अबे साले नए नए आए लगते हो , अपने बाप के बाप से पता
पूछ रहे हो , विश नहीं करना जानते ?"। मेरी ऊपर से नीचें तक सारी चूलें
हिल गयीं । इतनी देर में उनके कुछ और साथी एकत्रित हो गए । " चलो पचास
फर्शी लगाओ "। मेरी कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने कहा " क्या करना है सर
"। बोले " किस जंगल से आये हो , शकल से एक दम डी सी लगते हो "। फिर
उन्होंने बताया कि फर्शी कैसे लगाई जाती है और मुझसे पूरी पचास फर्शियां
लगवाई गयीं । भाग्यवश एक चपरासी ने हस्तक्षेप किया " भैय्या , जाइ दे , नवा
नवा है , सब धीमे धीमे सीख जैहें "। मुझे छुटकारा मिला , कमरे में जाकर
चैन की सांस ली ।
अभी मेरे दुखों का अंत नहीं हुआ था ।
रात में खिड़की पर किसी ने दस्तक दी , मैंने जैसे ही खिड़की खोली , एक ज़ोर
की आवाज़ के साथ ढेर सारा पानी अन्दर आया । थोड़ी देर में समझ में आया , कि
सुराही फोडी गयी थी । सारा बिस्तर भीग गया था , बिस्तर लपेट कर अलग करना
पड़ा और किसी तरह राम राम कर के रात बीती । सितम्बर माह में फ्रेशर फंक्शन
समाप्त होने तक गाहे बगाहे यह सिलसिला चलता रहा । सभी सीनियर्स को आदाब
करना , उनका नाम तथा क्लास जानना आवश्यक होता था । आदाब करने की आदत तो ऐसी
पड़ गयी थी , किसी भी अनजान चेहरे को देखते हो , हाथ खुद बा खुद उठ जाता
था , चाहे वो कोई भी ही ।
थोड़े समय बाद सीनियर्स मित्रवत हो गए ।सभी
तरह की मदद उनसे मिल जाती थी । बाद में इसी छात्रावास में 1968 में जनरल
सेक्रेटरी , 1970 में सोशल सेक्रेटरी चुना गया । 1980 से 1984 तक अधीक्षक
भी रहा और आज तक उसी संस्था से जुड़ा हुआ हूँ ।
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