क्यूँ है इलज़ाम हवा पे कि वो बहती क्यूँ है
यहाँ हर कोई बहता है समय भी आदमी भी
पर्दा गिरता है एक मुख़्तसर किरदार के बाद
यहाँ हर चीज़ बुझती है शमा भी ज़िंदगी भी
जो है हर वक़्त रूबरू उसकी क़ीमत क्या है
चला जाये कोई आके तो खलती है कमी भी
ज़रूरत है चराग़ों की अगर घर में अँधेरा है
जो सोने भी न दे हमको बुरी है रोशनी भी
फ़र्क़ कुछ तो रहे पत्थर में और एक आदमी में
बची रहने दे इन आँखों में थोड़ी सी नमी भी
मेरा हक़ ही नहीं है चाहने की आरज़ू पर
ये है जो प्यार मेरा है मेरी एक बेबसी भी
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