अगर बुझ जाए पूरी तिश्नगी तेरे लबों की
जो बचती है पियाले में मुझे दो घूँट पीने दे
यही मज़हब है मेरा और यही ईमान है मेरा
उधर मैं तुझको जीने दूँ इधर तू मुझको जीने दे
मेरा भी कुछ तो हक़ है इन बदलते मौसमों पर
झुलसते इस बदन को थोड़े सावन के महीने दे
सुना है कल मदरसे में मनेगा जश्ने आज़ादी
न हो तौहीन जलसे में , फटी पोशाक सीने दे
है क्यूँ इंसान आमादा तेरी दुनियाँ मिटाने को
उसे जब ज़िंदगी दी है तो जीने के क़रीने दे
No comments:
Post a Comment